Sunday, October 18, 2009

प्लैटिनम की खोज - एपिसोड : 43

‘‘वाह वाह।’’ वह खुश होकर चिल्लाया, ‘‘बहुत दिनों बाद ऐसा शिकार मिला है। वरना हम तो नर मांस का मजा भूल गये थे।’’
‘‘ज्यादा टें टें मत करो। अभी इसे सरदार की सेवा में पेश किया जायेगा। सरदार ने भी बहुत दिनों से नर मांस नहीं खाया है।’’

उनकी बातों से साफ था कि वे नरभक्षी थे।

‘‘भगवान डूंगा टूंगा कबीले पर छिपकली के रक्त की बारिश करे। जब से उन्होंने अपनी बस्ती के चारों ओर बांस की दीवार बनाई है, हम लोग नर मांस के लिए तरस गये हैं।’’ एक ने मुंह बनाकर अपने पड़ोसी कबीले को शाप दिया।
‘‘तुम लोग रास्ता दो। इसे सरदार के पास ले चलना है।’’ एक जंगली ने चीखकर कहा और बाकियों ने दायें बायें हटकर उसे रास्ता दे दिया। अब वे लोग बस्ती के अन्दर प्रवेश करके आगे बढ़ रहे थे।

इस काफिले में उपस्थित जंगली नारे लगाकर 'शिकार‘ के फंसने का एलान कर रहे थे जिसके कारण घरों से निकलकर बस्ती के वासी उनका दर्शन कर रहे थे। और उन बस्ती वासियों का दर्शन करके शमशेर सिंह का रक्त सूखता जा रहा था। इस समय उसे लग रहा था मानो उसका गर्दन के नीचे से सारा धड गायब हो गया है। बड़ी मुश्किल से वह जंगलियों के साथ घिसट रहा था।

फिर उनका काफिला एक विशाल झोंपड़े के सामने जाकर रुक गया। इस झोंपड़े को घास फूस का बना कच्चा महल कहना अधिक उपयुक्त था क्योंकि एक चहारदीवारी के अन्दर छोटे बड़े मिट्‌टी के बने कई कमरे इस झोंपड़े का महलनुमा नक्शा कर रहे थे। इस महल की चहारदीवारी में बने द्वार पर दो जंगली खड़े हुए पहरा दे रहे थे।

शमशेर सिंह के साथ आये सारे जंगली उस द्वार के सामने जाकर रुक गये। फिर उनमें से एक महल के पहरेदारों से संबोधित हुआ, ‘‘सरदार को सन्देश भेजो कि हम लोग उनसे मिलना चाहते हैं।’’
एक पहरेदार अंदर चला गया। थोड़ी देर बाद वापस आकर बोला, ‘‘सरदार तुम लोगों से मिलने के लिए तैयार है। वह अपने दरबार में है।’’

अब ये लोग अन्दर दाखिल होकर एक ओर जाने लगे। शायद उस ओर सरदार का दरबार था। जल्दी ही वे एक बन्द दरवाज़े के सामने पहुंच गये। एक ने आगे बढ़कर दरवाज़ा खटखटाया।
‘‘अन्दर आ जाओ।’’ अन्दर से आवाज आयी। और वे लोग दरवाज़ा खोलकर अन्दर पहुंच गये।

यह एक बड़ा सा कमरा था जिसमें पहले से पाच छह लोग बैठे थे। सामने एक बड़ी सी सिंहासन नुमा मिट्‌टी की बनी कुर्सी पर एक मोटा तगड़ा जंगली बैठा था। वही उन लोगों का सरदार था।

No comments: