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Wednesday, December 3, 2008

साइंस फिक्शन - भूत, वर्तमान, भविष्य : संस्मरण - 9


लंच टाइम में अमित ओम जी अपनी दुखभरी गाथा सुनाने लगे. दरअसल मोहन जी उन्ही के रूम पार्टनर बने हुए थे. रात को मोहन जी को गर्मी लगने लगी और उन्होंने फुल स्पीड में पंखा चला दिया. अब बनारस का मौसम ऐसा तो था नहीं. नतीजे में अमित को कम्बल ओढ़ना पड़ा. थोडी देर बाद मोहन जी बोले अब मुझे और गर्मी लग रही है. उन्होंने ए.सी. भी चला दिया. अब तो अमित जी कम्बल के अन्दर भी ठिठुरे जा रहे थे.
लेकिन कहानी यहीं पर ख़त्म नही हुई. ए.सी. और पंखा काफी देर चलाने के बाद मोहन जी कहने लगे, अब मुझे कुछ कुछ सर्दी लग रही है. तो बजाये इसके कि वे पंखा और ए.सी. बंद करते, उन्होंने अमित के ऊपर से कम्बल खींचा और ख़ुद ओढ़ लिया. फ़िर तो अमित की रात बुरी गुजरी.
सारे तकनीकी सत्र समाप्त हो चुके थे. अब बारी थी बनारस डाक्यूमेंट की तैयारी की. इस काम के लिए एयर वाइस मार्शल विश्वमोहन तिवारी जी लगाये गए. और साथ में जुटे सभी सत्रों के रिपोर्तिअर. जिन्होंने अपने अपने सत्रों का कच्चा चिटठा बयान किया. और आश्चर्य इस बात का था की जो सत्र एक एक घंटे चले उसमें काम की बात बस एक ही मिनट की थी.( वरना रिपोर्तिअर को भी एक घंटा लेना चाहिए था. ) तो इस सत्र की अध्यक्षता कर रहे थे डा. मनोज पटैरिया जी और साथ में थे भारतीय विज्ञान कथा समिति के अध्यक्ष डा. राजीव रंजन उपाध्याय जी. इस सत्र में बहुत ही अहम् मुद्दों पर चर्चा हुई. विज्ञान कथा की एक नई परिभाषा दी जाए, यह सबसे अहम् मुद्दा था. उसके बाद अगला अहम् मुद्दा था, विज्ञान कथा पर पुरूस्कार दिए जायें. भारतीय विज्ञान कथाओं पर अगर रिसर्च हो तो दो चार पी.एच.डी के टोपिक और मिल सकते हैं. इसलिए इस टोपिक को भी चर्चा में शामिल कर लिया गया. और इस तरह धीरे धीरे बनारस डाक्यूमेंट की थीसिस तैयार होने लगी. शाम को एक अलग ही रंग नज़र आ रहा था. दरअसल आज कुछ प्रतियोगिताएं भी प्रायोजित थीं. औरतों के लिए सूप बनाओ और पुरुषों के लिए मछली पकडो. वैसे मछली का सूप भी स्वादिष्ट होता है चीनी और जापानियों के लिए. तालाब में मछलियाँ छोड़ी गईं और आधी से ज़्यादा पहुँचने से पहले ही परलोक सिधार गईं. फ़िर शुरू हुई प्रतियोगिता और दिल्ली के अमित सरवाल एकमात्र मछली पकड़कर बाज़ी मार गए. हमारे अरशद भाई ने भी पूरा ज़ोर लगाया. पूरा तालाब घूम घूम कर मछली पकड़ने की कोशिश की. लेकिन वह ठहरे गोमती वाले जिसमें मछलियाँ तो नहीं हाँ फटे जूते ज़रूर निकलते हैं. तो वह वहां कहाँ मछली पकड़ पाते. फ़िर सूप प्रतियोगिता का रिज़ल्ट आया और रीमा सरवाल जी बाज़ी मार ले गईं. यानी एक तरफ़ अमित सरवाल और दूसरी तरफ़ रीमा सरवाल. अब मैं अरविन्द जी से पूछना भूल गया कि कहीं यह फिक्सिंग का मामला तो नहीं. अरविन्द जी वैसे भी मछलियों का विभाग सँभालते हैं. हो सकता है मछलियों को कुछ समझा दिया हो.
इस बीच वक्त हो गया था हरीश यादव के मैजिक शो का. जो सभी बच्चों को खूब पसंद आया. उन बच्चों में डा. उपाध्याय, डा. पटैरिया, डा. अरविन्द के साथ हम सभी शामिल थे. डा. अरविन्द दुबे जो हरीश यादव के सहयोगी थे, तख्ती दिखा दिखा कर सभी से ताली बजवा रहे थे. और जो नहीं बजाता था उसे स्टेज पर बुलाकर खिंचाई भी करते थे. हमारे जाकिर भाई भी इससे बच नही पाये.
शो देखते देखते हमारी ट्रेन का वक्त हो गया. इसलिए आगे का कार्यक्रम अरविन्द जी के भरोसे छोड़कर हमने सबसे विदा ली, बनारस स्टेशन तक आए और फ़िर ट्रेन में बैठकर लौटके बुद्धू घर को आये.
तो ये किस्सा यहीं ख़त्म हुआ. अब कल से वापस आते हैं किस्सये ताबूत पर.

Sunday, November 30, 2008

साइंस फिक्शन - भूत, वर्तमान, भविष्य : संस्मरण - 8


चौथा सत्र समाप्त हुआ और हम चाये पीने बाहर निकले. देखा मोहन जी हत्थे से उखड़े हुए हैं. पता चला उनका झोला, जो उन्हें यहाँ मिला था, किसी ने शरारत में मार लिया है. आख़िर में उन्हें दूसरा झोला देकर बहलाया गया. हालाँकि उन्हें फ़िर भी अफ़सोस था कि झोले के साथ उनकी कुछ बहुमूल्य कृतियाँ पार हो गई थीं. इस बीच पता चला कि मीनू पुरी जी अपना पेपर पढने से छूट गई हैं. और वह भी तब जबकि अरविन्द जी हर सत्र के बाद उन्हें याद कर रहे थे. बहरहाल बचे खुचे लोगों को किसी तरह अन्तिम सत्र में ठूँसा गया.
पांचवां और अन्तिम तकनीकी सत्र विज्ञान कथा के भविष्य पर आधारित था. प्रोफ़ेसर आर.डी.शुक्ला ने कुर्सी संभाली और संचालन व रिपोर्टिंग का काम संभाला मीनू खरे ने. सबसे पहले बोलने आए हेमंत कुमार जी. एक पाठक की हैसिअत से उन्हें भारत में विज्ञान कथा का भविष्य उज्जवल दिखा. मालुम नहीं एक लेखक की हैसिअत से उन्हें कैसा दिखा. वैसे ख़ुद लेखक का भविष्य तो प्रकाशक पर निर्भर होता है. यह बात हेमंत जी ने भी ढके छुपे लफ्जों में बता दी. विज्ञान कथा लेखक अमित कुमार ने वर्तमान विज्ञानं कथा की अन्य साहित्यिक कथाओं के साथ तुलना की और साहित्यकारों को विज्ञान कथा को मुख्य धारा से अलग करने के लिए लताड़ा भी. उनका यह कदम साहस योग्य कहा जाएगा क्योंकि इस समय चेयरमैन की कुर्सी पर इत्तेफाक से एक साहित्यकार तशरीफ़ रखते थे. बाद में बात बराबर करने के लिए अमित ने विज्ञान कथाकारों से भी कहा कि कम से कम वे अपनी कथाएं साहित्य में शामिल करने लायेक लिखें. साहित्य समाज का दर्पण होता है. बुशरा अल्वेरा ने एक कदम आगे बढ़ते हुए विज्ञान कथा को भविष्य के समाज का दर्पण बता दिया. कुछ महिलाओं ने इस बीच अपने पर्स का दर्पण निकालकर लिपस्टिक सही करनी शुरू कर दी थी.
एक तरफ़ अरशद जी अपना पॉवर पॉइंट प्रेजेंटेशन तैयार कर रहे थे. उनका नंबर बुशरा अल्वेरा के बाद था. इतने शोर्ट टाइम में किसी ने अपना प्रेजेंटेशन तैयार कर लिया यह एक रिकॉर्ड है. गिनीस बुक में जाने लायेक. बहरहाल अरशद ने गाँव गाँव तक विज्ञान कथा को पहुंचाने की बहुत शानदार तरकीब बताई. यानी उनके पप्पेट शो करवाए जाएँ. साइंस फिक्शन को मीडिया कितनी अहमियत देता है, यह बताया राजस्थान से आये कमलेश मीना ने. और यह बताया कि देशी मीडिया साइंस से ज्यादा अहमियत बॉलीवुड की हीरोइन के जुकाम को देता है.
उन्नीकृष्णन जी ने विज्ञान कथा को आम आदमी से जोड़ने की ज़रूरत बताई. फिर मेरा बोलने का नंबर आया. सॉरी मीनू पुरी जी फ़िर छूट गईं. मेरे बोलने से पहले उन्होंने विज्ञान कथा का इतिहास बताया. और समय कम होने की वजह से केवल डा. राजीव रंजन जी का इतिहास बताकर बैठ गईं. आज पॉवर पॉइंट सिस्टम सही काम कर रहा था इसलिए मेरे घिसे पिटे सब्जेक्ट को उसकी स्लाइड की वजह से लोगों ने काफ़ी शौक से देखा. मैंने तो केवल इतना बताया कि साइंस फिक्शन क्यों ज़रूरी है और कैसे उसे बढ़ावा दिया जाए. इसमें अपने मतलब की कुछ बातें ज़रूर शामिल कर दी थीं. जैसे कि विज्ञान कथा के लिए पुरस्कार मिलना चाहिए. और आज डा. अरविन्द दुबे जी को भी मौका मिल गया. सबको स्पेस घुमाने का. प्रकाश के वेग से मात्र आठ मिनट में उन्होंने सबको विज्ञान कथाओं में स्पेस घुमा दिया. और एक महत्वपूर्ण जानकारी यह दी कि भारतीय विज्ञान कथाएँ स्पेस के बिना पूरी ही नहीं होतीं.
लेकिन जल्दी ही हमें धरती पर वापस आना पड़ा. क्योंकि भूख जोरों की लग रही थी और बाहर से लंच का बुलावा आ चुका था.

Thursday, November 27, 2008

साइंस फिक्शन - भूत, वर्तमान, भविष्य : संस्मरण - 7


शाम को बनारस का असली रंग जमा. यानी उस्ताद अली अब्बास खां ने सबको अपने शहनाई वादन से फैज़आब किया. आसमान से शबनम रुपी मोती गिर रहे थे और सामने से आ रही थीं शहनाई की मधुर लहरियां. लग रहा था, स्वर्ग धरती पर आ गिरा है.

जुरासिक पार्क के लेखक माइक क्रिक्स्टन पर एक श्रद्धांजली के बाद उस्ताद का शहनाई वादन शुरू हुआ. हमारे राजन मियां स्टिल कैमरे से उसे रिकॉर्ड करने लगे. बाद में हमने उन्हें समझाया की यहाँ कैमरे की नहीं टेप रिकॉर्डर की ज़रूरत थी. शुरुआत में उस्ताद हलकी फुल्की धुनों वाले फिल्मी गीत सुनाते रहे. फिर एयर वाइस मार्शल विश्वमोहन जी ने उन्हें जोश दिलाया. फौजी अफसरों का काम ही होता है जोश दिलाना. उस्ताद को भी जोश आ गया और उन्होंने राग मल्हार छेड़ दिया. नतीजे में आसमान से ओस की बूँदें तेज़ी से गिरने लगीं. फिर उस्ताद ने राग भैरवी छेड़ा और बगल में मुर्गा बांग देने लगा. ये राज़ बाद में खुला कि वह दरअसल आज के डिनर में शामिल था. फिर उस्ताद कभी हलके फुल्के तो कभी पक्के राग छेड़ते रहे और लोग मंत्रमुग्ध होकर सुनते रहे. एक सज्जन तो ऐसे खोये कि अपना सूप मुंह की बजाये नाक से पी गए.

अगले दिन चौथे तकनीकी सत्र की शुरुआत हुई. चेयरमैन बने श्री उन्नीकृष्णन जी और टोपिक लिया गया, विज्ञान कथा द्वारा विज्ञान संचार. अब मैंने तो इसी सत्र के लिए अपना पेपर भेजा था, पता नहीं कैसे पांचवें सत्र में पहुँच गया. खैर अच्छा ही हुआ. क्योंकि इस सत्र में विश्वमोहन जी ने वाचकों की काफ़ी खिंचाई की. डा. आफरीना रिज़वी ने टाइम मशीन और फ्रेंकेस्टाइन की तुलना की और इस नतीजे पर पहुंचीं कि चूंकि टाइम मशीन में साइंटिफिक शब्दों का ज्यादा इस्तेमाल हुआ है इसलिए वह विज्ञान को ज्यादा संचारित करती है. उनका यह निष्कर्ष किसी काम न आया क्योंकि विश्वमोहन जी ने टाइम मशीन को सिरे से विज्ञान कथा मानने से इनकार कर दिया. विश्वमोहन जी बहुत सी विज्ञान कथाओं को खारिज कर चुके हैं. और इस बात का पूरा चांस है कि विज्ञान कथा लेखकों की इंटरनेशनल बिरादरी उन्हें खारिज कर दे.

मोहन जी कोई तगड़ा सोर्स लगाकर एक बार फिर बोलने खड़े हो गए. गनीमत हुई कि कल की तरह आज उन्हें मुंह दबाकर नहीं उतारना पड़ा. मीनू खरे ने रेडियो पर विज्ञान कथाओं के प्रसारण की कहानी बताई. अंदाज़ वही था यानि 'ये आल इंडिया रेडियो है'. इस कहानी में डा. अरविन्द दुबे, जाकिर अली रजनीश के साथ जब मेरा ज़िक्र आया तो मैं खुशी से फूला न समाया. फिर हरीश यादव आये. उन्होंने खास बात ये बताई कि दुनिया की पहली विज्ञान कथा पत्रिका निकालने वाला बंदा दरअसल रेडियो का था. जब रेडियो पर पहला विज्ञान कथा ड्रामा प्रसारित हुआ तो एलिएंस के खौफ से अमेरिकन्स अपने बेड के नीचे दुबक गए. अमित कुमार ओम बोलने आए और बचपन की यादें ताज़ा कर दीं, जब हम कोर्स की किताबों के बीच कॉमिक्स दुबकाकर पढ़ा करते थे. आज जब उन्होंने बताया कि कॉमिक्स और कार्टून विज्ञान संचार में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं तो हमें अपना कॉमिक्स पढ़ना सार्थक नज़र आने लगा. लेकिन वो ये बताना भूल गए कि भारत की पहली देशी विज्ञान कथा कॉमिक्स फौलादीसिंह सीरीज़ थी.

अंत में उन्नीकृष्णन जी ने बताया कि विज्ञान कथा को कथा की तरह पढ़कर आनंद लेना चाहिए न कि उसका पोस्टमार्टम किया जाए.

Tuesday, November 25, 2008

साइंस फिक्शन - भूत, वर्तमान, भविष्य : संस्मरण - 6



चाय के समय में हरीश गोयल जी मेरे पीछे पड़ गए. उन्हें दरअसल मेरी वह किताब चाहिए थी जिसका अभी अभी विमोचन हुआ था. अब राजन मियां कहने लगे कि सबको फ्री में किताबें बाँट दी जायें. बड़ी मुश्किल से उन्हें समझाया कि भाई, प्रकाशक कि लुटिया नही डुबोनी है. फ़िर गोयल जी को समझाना शुरू किया. गोयल जी ख़ुद तो एक किताब लाते हैं विमोचन के लिए, और फिर छुपा लेते हैं. और दूसरों कि किताब उडाने कि फिराक में रहते हैं. आखिरकार उन्हें एक पुरानी किताब देकर बहलाना पड़ा. उसमें भी अमित जी लंगड़ मार गए. कहने लगे कि वो किताब नही, उसकी फोटोकॉपी है.गोयल जी भड़क गए. फिर उन्हें समझाने में शाम की चाय चली गई.
चाय के बाद तीसरा सत्र शुरू हुआ. विज्ञान कथा वर्तमान में किधर जा रही है, इसपर बहस होनी थी. और इस बहस के लिए एक से एक दिग्गज मौजूद थे. डा. विभावरी देशपांडे ने कुर्सी संभाली और अन्वेषा मैती ने जापानी व बंगाली विज्ञान कथा साहित्य की तुलना कर डाली. यानी कहाँ का जोड़ा कहाँ भिडाकर इस निष्कर्ष पर पहुंचीं की दोनों में ही एडवेंचर का इस्तेमाल बहुतायत से हुआ है.रीमा सरवाल ने दूर की कौडी सोची और विज्ञान कथा को उपनिवेशवाद के बाद का साहित्य बताया. दूसरे शब्दों में तीसरी दुनिया के वासियों की तुलना एलीएंस से कर डाली. इस बीच लैपटॉप में भी एलिएंस यानि कंप्यूटर वायरस घुस गए. इसलिए इस सत्र में भी कुछ वक्ताओं को स्लाइड के बिना अपना शो दिखाना पड़ा.
जाकिर अली रजनीश ने विज्ञान कथा लेखकों से गुजारिश कि वे बच्चों के लिए रोचक साहित्य लिखें. 'शुक्र ग्रह पर पीछा जैसी कहानियाँ न ही लिखी जाएँ तो बेहतर है. डा. रत्नाकर भेलकर ने आर्थर क्लार्क की कहानी का पोस्टमार्टम किया. उसी समय लैपटॉप से वायरस गाएब हो गए. और सही वक्त पर गाएब हुए. क्योंकि अगले पेपर विज्ञान कथा फिल्मों पर थे. वेन्कादेशन और श्रीविद्या ने फिल्मों के स्पेशल इफेक्ट के बारे में बताया जिसका माइक ने खतरनाक आवाजें निकालकर बखूबी साथ दिया. वलिगंथम और संपत कुमार ने इंडियन और वेस्टर्न फिल्मों की तुलना की. और महत्वपूर्ण बात भूल गए, कि हर इंडियन फ़िल्म में रोमांटिक गाना धूम धडाके के साथ ज़रूर होता है, जो कि वेस्टर्न में नदारद होता है.
अंत में लोगों को हर मिनट टाइम की याद दिलाने वाली चेयरपर्सन जी ने माइक संभाला और अपना टाइम देखना भूल गईं. साथ ही ये भी भूल गईं कि हॉल में देशपांडे जी के अलावा भी लोग है. उन्होंने अपने पतिदेव की कहानियों का गुणगान करना शुरू किया और देशपांडे जी मंत्रमुग्ध होकर उसे सुनने लगे. पता नहीं बाद में उन्होंने पत्नी महोदया को शौपिंग कराई या नहीं. इस चक्कर में डा. अरविन्द दुबे जी एक बार फिर रह गए. विज्ञान कथाओं में उन्हें स्पेस की तलाश करनी थी. यहाँ तो टाइम में ही स्पेस नहीं बचा.

Sunday, November 23, 2008

साइंस फिक्शन - भूत, वर्तमान, भविष्य : संस्मरण - 5



अब शुरुआत हुई प्रथम तकनीकी सत्र की. चेअरमैन बने प्रो. सागरमल गुप्ता जी. और काफी सख्त चेअरमैन बने. किसी को उसकी टाइम लिमिट से आगे नही बढ़ने दिया. लखनऊ के चाइल्ड स्पेशलिस्ट डा. अरविन्द दुबे जी एक घंटे का लेक्चर तैयार करके आये थे. उन्हें मात्र छः मिनट में बिठा दिया. वे बस इतना बता पाये कि विश्व की प्रथम विज्ञान कथा फ्रेंकेसटाइन नहीं है. उससे बरसों पहले लूसियन ने ट्रू स्टोरी और केप्लर ने सोमनियम लिखी है. डा. गौहर रज़ा ने कलाकार और वैज्ञानिक के बीच मेलजोल कराने की कोशिश की तो डा. अरुल अरम एच.जी.वेल्स की कहानियों में सामाजिकता और आधुनिकता के आगे का जहान तलाश कर रहे थे. डा. सी. एम नौटियाल साइंस फिक्शन और फंतासी की बहस में उलझे थे. लगता है वो याहू फोरम पर हुई बहस से अब तक उबर नहीं पाए हैं. लेकिन चेयरमैन की गिलासनुमा घंटी सब पर भारी थी. डा.मुथु भी विज्ञान कथाओं में चाँद की तलाश देर तक नहीं कर पाये और चेयरमैन ने सही वक्त पर अपना सेशन ख़त्म कर दिया. फिर सभी डाइनिंग मैदान की तरफ़ दौड़ पड़े.
बाहर किताबों की प्रदर्शनी लग चुकी थी. मेरे साथ जाकिर अली रजनीश, अरविन्द मिश्र, हरीश गोयल. राजीव रंजन और वाई देशपांडे जैसे नामवर लेखकों की पुस्तकें नज़र आ रही थीं. बगल की मेज़ पर टी.ए फॉर्म भी रखे थे जो प्रतिभागियों के आकर्षण का प्रमुख केन्द्र थे.
लंच के बाद दूसरे तकनीकी सत्र की शुरुआत हुई. इस सेशन की ख़ास बात ये रही कि प्रोजेक्टर ने काम करना बंद कर दिया. तो जितने वक्ता स्लाइड बनाकर लाये थे सब के अरमानों पर ओस पड़ गई. इस बार कुर्सी संभाली सुश्री मधु पन्त ने. वक्ताओं ने उनके महिला होने का लाभ उठाया, और जब तक जी चाहा बोलते रहे. मोहन जी को मुंह दबाकर चुप कराना पड़ा. डा. थिरुमनी विज्ञान को अच्छी विज्ञान कथा के माध्यम से समझने के हामी थे. हरीश गोयल ने ठान लिया कि विज्ञान कथा को स्कूलों के कोर्स में शामिल कराकर रहेंगे. यानी बच्चों के बस्ते का वज़न कुछ और बढ़ा. विष्णु प्रसाद चतुर्वेदी ने माना कि विज्ञान के बिना विज्ञान कथा हो ही नही सकती ( अब पता चला.) अमित सरवाल ने विज्ञान कथा को यू.जी.सी तक ले जाने कि ठान ली थी, लेकिन उसी समय चाये का बुलावा आ गया.

Friday, November 21, 2008

साइंस फिक्शन - भूत, वर्तमान, भविष्य : संस्मरण - 4


सुबह अमित कुमार जी पधारे. स्वीमिंग सूट में थे और हमें तैराकी का न्योता देने आये थे. मैं तो टब में भी उतरते हुए घबराता हूँ. अरशद भाई उठने को हुए लेकिन हम ने उन्हें घूर कर बिठा दिया. एक रात उनका नजला झेल चुके थे और अभी एक रात और गुजारनी थी. बहरहाल अमित जी को एक साथी मिल गया जिसने कुँए में तैरना सीखा था. अमित जी तो तैरने निकल गए और हम मोहन जी के रूम पार्टनर से उनकी रातबीती सुनने लगे.
जब मोहन जी ने उनका भेजा चाटना शुरू किया तो वे लिखने का बहाना करके एक करवट हो गए. मोहन जी को जोश आया. उन्होंने कूदकर अपना किताबों का गट्ठर उठाया और कमरे की साडी बत्तियां जलाकर उन्हें पढ़ना शुरू कर दिया.

आज भी नाश्ता कल जैसा ही था. हो सकता है कल ही का रहा हो. वैसे आज मेहमानों की संख्या बढ़ गई थी. बाल भवन की पूर्व निदेशक मधु पन्त, रीमा व अमित सरवाल, बुशरा अल्बेरा, डा.रत्नाकर, डा.गौहर, डा.अरुल अरम, डा.अरविन्द दुबे जैसी कई हस्तियां नज़र आ रही थीं.
चूंकि अरविन्द मिश्र जी भारतीय समयानुसार चलने के कायल नही हैं इसलिए उन्होंने ठीक १०:३० बजे उदघाटन सत्र चालू कर दिया. माननीय मुख्य अतिथि चित्रकूट विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.एस.एन.दुबे ने सर्वप्रथम दीप प्रज्ज्वलित किया. आमतौर पर ऐसे अवसरों पर माचिस गायब हो जाती है, और किसी धूम्रपान वाले की तलाश होने लगती है. लेकिन अरविन्द जी इस मामले में काफी तजुर्बेकार हैं. इसलिए माचिस मौजूद थी.

उदघाटन सत्र का संचालन करने के लिए प्रो.एस.एन.गुप्ता जी खड़े हुए, और माइक से आवाज़ गायब हो गई. फिर बीच बीच में अपनी मर्ज़ी से आती जाती रही. इस बीच मराठी विज्ञान कथा लेखक वाई.एच. देशपांडे ने महाभारत काल के साइंस फिक्शन की सैर कराई. मधु पन्त जी ने कविता सुनाई. और फिर बारी आई किताबों के विमोचन की.
कुल तीन किताबों में सर्वप्रथम डा.रत्नाकर भेलकर की किताब का अनावरण हुआ, फिर हरीश गोयल जी की किताब का भी विमोचन हो गया कुल एक अदद किताब गोयल जी इसके लिए लाये थे, और झलक दिखला कर छुपा ली. तीसरी किताब मेरी थी, जिसके विमोचन में थोडी तकनीकी खराबी आ गई. दरअसल पैकिंग काफी मज़बूत हो गई थी. आख़िर में चाकू का सहारा लेना पड़ा. वरना अरविन्द जी तो बिना विमोचन के ही लौटा रहे थे.

Thursday, November 20, 2008

साइंस फिक्शन - भूत, वर्तमान, भविष्य : संस्मरण - 3


जब हमारे पपेटिअर अरशद उमर जी अपनी टीम में शामिल नितिन और ब्रजेश का परिचय करा रहे थे, उसी समय वहां पटैरिया जी ने प्रवेश किया. इस तरह उन्हें फ़िल्म "First World" का प्रेमिअर देखने का मौका मिल गया. मार्क लुंड द्वारा लिखित व निर्देशित इस फ़िल्म में दर्शाया गया है कि धरती पर एलिएंस मौजूद हैं लेकिन हमें उनका पता नहीं. ठीक उसी तरह जैसे उसके बाद चेन्नई के वैज्ञानिक डा.निल्लई मुथु जी अपने डेढ़ घंटे के लेक्चर में क्या कह गए, कुछ पता नहीं. बस एक ही चीज़ समझ में आई अपुन को कि चंद्रयान चंद्रमा तक कैसे पहुँचा. वैसे वह वैज्ञानिक ही क्या जिसकी बातें लोगों के पल्ले पड़ जाएँ.मुथु जी के बाद पटैरिया जी ने बहुत छोटा सा भाषण दिया. शायद उन्हें एहसास हो गया था कि अब लोगों के पेट में चूहे कूदने लगे हैं.

डिनर के बाद सोने का वक्त आया. उसी वक्त हमारे मित्र जाकिर भाई घबराए हुए कमरे में दाखिल हुए. पूछने पर मालूम हुआ कि उन्हें जो कमरा एलॉट हुआ है उसमें एक तो मद्रासी भाई हैं और दूसरे साहब ईरान से पधारे हैं. ये ठहरे हिन्दी भाषी. नतीजे में दोनों की चाओं चाओं सुनकर उनका भेजा घूम गया है. हमने हमदर्दी से उन्हें देखा और उनका बेड अपने कमरे में लगवा लिया. ये अलग बात है की यहाँ भी जाकिर भाई सुकून से नहीं रह पाए. क्योंकि हमारे अरशद भाई को ज़ोरदार जुकाम हो गया था, और वो सारी रात छींकते रहे. यानी जाकिर भाई आसमान से गिरे तो खजूर में अटके.
रात को अचानक किसी पहर आंख खुली. दरवाज़े पर नज़र गई तो देखा, किसी हारर फ़िल्म की तरह धीरे धीरे खुल रहा है. कलेजा मुंह को आ गया. सोचा कम्बल से पूरा मुंह ढँक लें. लेकिन कमबख्त कम्बल में इतनी बदबू आ रही थी कि इरादा छोड़ना पड़ा.

जब पूरा दरवाजा खुल गया तो मोहन जी का चेहरा नज़र आया. वो अपनी कहानियाँ सुनाने के लिए सुबह से किसी मुर्गे की तलाश में थे और उन्हें हमसे काफ़ी उम्मीदें थीं. अब तो मुंह को कम्बल से ढंकना ही पड़ा. अरशद भाई की छींकें सुनते सुनते किसी तरह अगले दिन की सुबह हुई.

Wednesday, November 19, 2008

साइंस फिक्शन - भूत, वर्तमान, भविष्य : संस्मरण - 2

नाश्ते का अनाउंस हुआ तो काफी लोग मैदान में नज़र आये. मौसम खुशगवार था. हरी भरी घास के मैदान में नाश्ते का अनुभव अच्छा रहा. थोडी देर बाद विज्ञानं कथा लेखक समिति के अध्यक्ष डा.राजीव रंजन उपाध्याय भी पहुँच गए. काफ़ी देर बाद वरिष्ट विज्ञान कथा लेखक हरीश गोयल जी पधारे. बाद में अरविन्द जी ने बताया, वो बनारस स्टेशन पर कहीं गुम हो गए थे. अच्छे लेखकों की यही पहचान है.

हरीश गोयल जी मुझे लेखक समिति का सदस्य बनाने में पूरी तरह जिम्मेदार हैं. ये अलग बात है वहां मुझे अपने को उनसे पहचनवाने में काफ़ी मेहनत करनी पड़ी.

नाश्ते के बाद थोडी देर गपशप होती रही. डा.उपाध्याय जी को एक इरानी मेहमान मिल गए. सो उन्हें अपनी फ़ारसी झाड़ने का मौका मिल गया. इसी में लंच का टाइम हो गया. नाश्ता और लंच दोनों में ही साउथ इंडियन का पूरा ख्याल रखा गया था. वैसे भी पहले दिन वे संख्या में ज़्यादा थे. हाँ मीठे की कमी ज़रूर खली. अब साउथ इंडियन तो मीठे पर ही भोजन का एंड करते हैं. इस कन्फयूज़न में मोहन जी काफी देर खाते रहे कि शायद अभी मीठा आ रहा है.
अरविन्द जी एक झलक दिखला कर गायब हो गए थे. पता चला कि वे डा.मनोज पटैरिया जी को लेने एअरपोर्ट गए हैं और प्लेन लेट हो गया है.(जो कि पटैरिया जी के साथ अक्सर होता है. कभी कभी तो प्लेन पहुँचता ही नहीं.)
बीच में प्रेस कांफ्रेंस भी हो गई. इन्हीं सब चक्करों में छः बज गए, और प्रोग्राम की शुरुआत होने को आई. सबसे पहले पपेट शो रखा गया था. मेरा ड्रामा बुड्ढा फ्यूचर इसके लिए चुना गया था. आधे घंटे के इस शो को देखने के लिए अच्छे खासे दर्शक मौजूद थे, ये तो खुशकिस्मती थी. और बदकिस्मती ये थी की उनमें ज्यादातर साउथ इंडियन थे. जिनके लिए हिन्दी भाषा भैंस बराबर थी. नतीजे में शो गूंगे बहरों का शो बनकर रह गया.
शो ख़त्म हुआ और पटैरिया जी के प्लेन ने लैंड किया.

Monday, November 17, 2008

साइंस फिक्शन - भूत, वर्तमान, भविष्य : संस्मरण - 1

दोस्तों , जब सुना कि बनारस में १०-१४ नवम्बर २००८ में एक कांफ्रेंस हो रही है. जिसमें साइंस फिक्शन का देश में भविष्य देखा जायेगा, तो मन उल्लास से भर उठा. फ़ौरन जाने की तैयारी शुरू कर दी. सिफारिश की ज़रूरत नही थी क्योंकि बड़े भाई अरविन्द जी प्रोग्राम के संयोजक थे.
उनको फोन मिलाया तो उन्होंने हुक्म सुना दिया कि एक पपेट शो भी कराना है. नतीजे में मुझे अरशद भाई को साथ लेना पड़ा. इंटरनेट पर ट्रेनों की लिस्ट देखी गई, कौन कौन सी शताब्दी ट्रेनें हैं बनारस के लिए. आख़िर में एक पैसेंजर ट्रेन पसंद आई हमारे अरशद भाई को. उधर अरविन्द जी फोन पर फोन कर रहे थे कि किस दिन आ रहे हो.
बहरहाल दस नवम्बर कि सुबह हम लोग सही सलामत बनारस स्टेशन पर खड़े थे.(हमारे देश की ट्रेनों का कोई भरोसा नहीं.) फिर आयोजकों को फोन मिला रहे थे लोकल वाहन के लिए. जबकि आयोजक दूसरी ट्रेन में कुछ साउथ इंडियन मेहमानों को ढूँढ रहे थे. उधर साउथ इंडियन मेहमान स्टेशन से बाहर आकर ठेले पर इडली डोसा ढूँढ रहे थे. बड़ी मुश्किल से उन्हें समझाया गया कि ये साउथ नहीं बल्कि नॉर्थ इंडिया है.
ऊपर वाले की दया से वहां गाड़ियां मौजूद थी. वरना अक्सर प्रोग्रामों में तो पैदल ही आयोजन स्थल तक जाना पड़ जाता है.
फिर वहां से हम लोग रवाना हुए संजय मोटेल्स के लिए जो शहर से बाहर एअरपोर्ट रोड पर सोलहवें पत्थर की बगल में है. और काफ़ी खूबसूरत है. यहाँ दो स्वीमिंग पूल हैं. एक उनके लिए, जो तैरना जानते हैं. और दूसरा उनके लिए जो तैरना नही जानते. क्योंकि ये सूखा रहता है.
संजय मोटल्स पहुँचने पर मालूम हुआ कि कुछ मेहमान तडके ही पहुँच चुके है. हमारे सम्मानीय मित्र डा.चन्द्रमोहन नौटियाल एक अन्य मित्र अमित कुमार के साथ नज़र आ रहे थे.
फिर धीरे धीरे वहां और मित्र और मेहमान भी नज़र आने लगे. लेकिन फिलहाल तो अपने पेट में चूहे कूद रहे थे और नाश्ते का इन्तिज़ार था, इसलिए बेहतर यही था कि नाश्ते के बाद पुराने मित्रों से गपशप की जाए.
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