Wednesday, July 22, 2009

प्लैटिनम की खोज - एपिसोड : 14

मि0 राजेश्वर ने रामसिंह के दरवाजे पर लगी कालबेल पा उंगली रखी। पाँच मिनट बीतने के बाद भी जब किसी ने दरवाजा नहीं खोला तो इस बार उन्होंने घंटी बजाने के साथ दरवाजा भी खटखटाया। इस बार कामयाबी मिल गयी और रामसिंह ने दरवाजा खोलकर बाहर झांका।
‘‘क्या आप मि0 रामसिंह हैं?’’
‘‘जी हां। फर्माईए।’’

‘‘मैं हूं राजेश्वर। और उसी कंपनी का डायरेक्टर हूं जिसने शमशेर सिंह को एप्वाइंट किया है।’’
यह सुनते ही रामसिंह का व्यवहार पूरी तरह बदल गया। दायां हाथ सलाम झाड़ने के लिए ‘आटोमैटिकली’ ऊपर नीचे होने लगा।

‘‘आईए अंदर आईए। आप बाहर क्यों खड़े हैं?’’
फिर दोनों अंदर आये। रामसिंह ने राजेश्वर को चारपायी पर बिठाया और खुद स्टूल पर बैठ गया जिसकी एक टाँग नदारद थी।

‘‘अब मैं आपको बताता हूं कि मैं किस काम से आया हूं।’’ राजेश्वर ने कहना शुरू किया। फिर कुछ पलों के लिए रुका। उसे शायद उम्मीद थी कि रामसिंह अब चाय या काफी लाने के लिए उठेगा। लेकिन रामसिंह पूरी तरह ठस बैठा रहा इसलिए राजेश्वर ने बात आगे बढ़ा दी,

‘‘बात यह है कि हमारी कंपनी पूरे देश में घूम घूम कर प्रतिभाओं को तलाशती है और फिर उन्हें अपने यहां एक अच्छी नौकरी दे देती है। शमशेर सिंह के इंटरव्यू से हमें मालूम हो गया कि आपके पास भी प्रतिभा है।’’
‘‘प्रतिभा? जरूर शमशेर सिंह ने मेरे बारे में कुछ गलत सलत कहा होगा। मैं तो यहां अकेला रहता हूं। और मेरे पास केवल एक चारपायी कुछ कपड़े और थोड़े बर्तन हैं बस।’’ रामसिंह को शमशेर सिंह की ओर से सदैव आशंका लगी रहती थी।

‘‘आप मेरा मतलब नहीं समझे। प्रतिभा यानि अकलमंदी। आप बहुत जीनियस व्यक्ति हैं। इसलिए मैं आपके पास आया हूं कि आप हमारी कंपनी में आना स्वीकार कर लें।’’ राजेश्वर ने समझाया।
‘‘अरे मैं किस काबिल हूं। मैं तो एकदम गधा , उल्लू का पट्‌ठा हूं।’’ रामसिंह ने कुछ ज्यादा ही विनय से काम ले लिया था।

‘‘यह तो आपके अपने विचार हैं। हम तो आपको जीनियस समझते हैं। इसलिए यह रहा आपका एप्वाइंटमेन्ट लेटर। आज से आप हमारी कंपनी में शामिल हो गये। अच्छा अब मैं चलता हू। कल आफिस में मुलाकात होगी।’’ लेटर देने के बाद राजेश्वर ने उठकर रामसिंह से हाथ मिलाया और फिर बाहर निकल गया। रामसिंह आश्चर्य की मूर्ति बना वहीं खड़ा उसे जाता देखता रहा।
-------

मि0 शोरी को प्रोफेसर डेव उर्फ देवीसिंह का मकान जल्दी ही मिल गया। शोरी ने आश्चर्य से पहले गेट पर दृष्टि दौड़ायी जहां सीमेण्ट से कोई परखनली नुमा रचना बनी थी। फिर उसकी दृष्टि लान पर पड़ी जहां भांति भांति का कबाड़ पड़ा हुआ था। इसमें किसी पुरानी गाड़ी का टूटा फूटा इंजन, दो तीन लोहे की घिरनियां, एक पीपे में भरा तारकोल और कुछ प्लास्टिक के खिलौने पड़े हुए थे। कोई तेल जैसा द्रव भूमि पर फैला था जिसमें से अजीब दुर्गन्ध आ रही थी।

वह कुछ देर वहाँ पड़े सामान को देखता रहा फिर कालबेल पर उंगली रखने लगा। किन्तु यहां उसे ठिठकना पड़ा क्योंकि वहां दो स्विच थे। एक का रंग लाल था और दूसरा नीले रंग का था।

1 comment:

निर्मला कपिला said...

या तो कुछ कहानी मे ऐसा रह गया है कि कुछ समझ कम आया या शायद हम भी रामसिह की तरह प्रतिभावान है हा हा हा आभार्