Wednesday, October 8, 2008

ताबूत - एपिसोड 9

कुछ दूर जाने के बाद एकाएक प्रोफ़ेसर ने अपना पेट पकड़ लिया और कराहने लगा.

"तुम्हें क्या हुआ?" शमशेर सिंह ने पूछा.प्रोफ़ेसर ने कुछ कहने की बजाए झाड़ियों की तरफ़ छलांग लगा दी. फिर झाड़ियों से इस तरह की आवाजें आने लगीं मानो वह उल्टियाँ कर रहा हो. और साथ ही 'धड़ाक' की दो तीन आवाजें भी सुनाई दीं.

"इसे क्या हुआ? अभी तो अच्छा खासा था." रामसिंह ने हैरत से कहा.
"लगता है इसने घास खाकर अपना पेट ख़राब कर लिया है." शमशेर सिंह ने अनुमान व्यक्त किया.फिर कुछ देर बाद प्रोफ़ेसर की ज़ोर ज़ोर से कराहने की आवाजें आने लगीं.

"क्या हम लोग तुम्हारी मदद को आयें?" रामसिंह ने चीख कर पूछा.
"आ जाओ. मुझसे तो अब उठा भी नही जा रहा है." प्रोफ़ेसर की कमज़ोर आवाज़ सुनाई दी. वे लोग झाड़ियों के पास पहुंचे और वहां पहुंचकर उन्हें अपने मुंह पर रूमाल रख लेना पड़ा. क्योंकि वहां उल्टियों के कारण अच्छी खासी बदबू फैली थी और प्रोफ़ेसर औंधे मुंह पड़ा कराह रहा था. उसका पैंट भी पीछे से भीगा था.
"मैंने मना किया था की यहाँ अपनी रिसर्च से बाज़ आ जाओ, लेकिन तुम नही माने. अब थोडी हिम्मत करो ताकि हम लोग तुम्हें यहाँ से ले चलें." रामसिंह ने कहा. फिर दोनों ने मिलकर उसे उठाया और झाड़ियों से बाहर ले आए. उसे एक पेड़ के सहारे लिटा दिया गया. फिर उसे पानी पिलाया गया.
"खजाने की खोज तो पाँच छह घंटों के लिए कैंसिल हुई. क्योंकि जब तक प्रोफ़ेसर ठीक नही हो जाता हम आगे नही बढ़ सकते." शमशेर सिंह ने चिंताजनक लहजे में कहा.

"हाँ. इसे तो अपनी मूर्खता से ही छुट्टी नही मिलती." रामसिंह ने प्रोफ़ेसर को घूरा.

"अब कुछ भी कह लो. अब तो मूर्खता हो ही गई. हाय .... अब तक पेट में मरोड़ हो रही है. पता नही वह कैसी घास थी. ये कमबख्त किताबों में भी झूटी बातें लिखी रहती हैं." प्रोफ़ेसर ने कराहते हुए कहा.
फिर तीनों ने वहीँ डेरा जमा लिया. चूंकि वे रात भर के जागे हुए थे, अतः शमशेर सिंह और रामसिंह की आँख लग गई. जबकि प्रोफ़ेसर काफ़ी देर परेशान रहा.शाम तक प्रोफ़ेसर की हालत काफी सुधर चुकी थी, अतः उनहोंने आगे बढ़ने का निश्चय किया. प्रोफ़ेसर ने अपने कपड़े बदल लिए थे.

धीरे धीरे अँधेरा छाने लगा था., और जंगली जानवरों की आवाजें आने लगी थीं. इन आवाजों को सुनकर तीनों की हालत ख़राब हो रही थी, किंतु ज़ाहिर यही कर रहे थे कि उन्हें इसकी कोई परवाह नही है. सबसे ख़राब हालत शमशेर सिंह की थी. उसका दिल इस समय दूनी रफ़्तार से धड़क रहा था और हाथ में पकड़ा खंजर लगभग चालीस दोलन प्रति सेकंड की रफ़्तार से काँप रहा था. इसी कम्पन में उसका खंजर एक बार रामसिंह के हाथ से छू गया.
"अरे बाप रे, ये किसने मेरे ऊपर दांत गड़ा दिए." रामसिंह ने घबरा कर प्रोफ़ेसर की दी हुई टॉर्च जलाई, फ़िर खंजर देखकर उसका पारा फ़िर चढ़ गया, "अबे यह खंजर जहाँ से निकाला है वहीँ रख दे वरना जंगली जानवरों का तो कुछ नही होगा, हम लोगों की जान ज़रूर चली जाएगी."
मजबूर होकर शमशेर सिंह ने दोबारा खंजर अपनी जेब में रख लिया. उसने तेज़ तेज़ चलना शुरू कर दिया. क्योंकि उसका मूड ख़राब हो गया था.

"अरे इतनी तेज़ क्यों चल रहे हो. मैं कमजोरी के कारण चल नही पा रहा हूँ." देवीसिंह ने कराहते हुए कहा.
"तो तुम आराम से आओ. मैं तो अब खजाने के पास ही रुकूंगा." शमशेर सिंह ने पीछे मुडे बिना कहा.
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1 comment:

अभिषेक मिश्र said...

Dilchasp kahaniyon ke agle ank ki pratiksha kafi lambi lagti hai. Agla bhag jald post karein.