Thursday, December 18, 2008

ताबूत - एपिसोड 31

"ये संदूक, जो तुम लोग देख रहे हो, यही मेरा आविष्कार है." कहते हुए महर्षि ने दूर ज़मीन में गडा एक कीलनुमा पत्थर दबाया और चारों संदूक अपने आप खुलते चले गए.
महर्षि ने आगे बताना शुरू किया, "इन संदूकों में जब मानव को लिटाकर बंद किया जाएगा तो इनमें उपस्थित यंत्र एक विशेष प्रक्रिया द्वारा उस मानव को ताप प्रशीतन की अवस्था में पहुँचा देंगे, और वह अत्यधिक निम्न ताप पर शीत निद्रा की अवस्था में पहुँच जाएगा. इस अवस्था में उसके शरीर की समस्त क्रियायें रूक जाएँगी. उसका मस्तिष्क असंवेदनशील हो जाएगा और वहीँ से उसकी आयु स्थिर हो जायेगी. जब तक वह संदूक में बंद रहेगा, वाहय दुनिया से और स्वयं उसके भौतिक शरीर से उसका संपर्क पूरी तरह टूट जाएगा."
"और उसकी यह अवस्था कब तक रहेगी गुरूजी?" मारभट ने पूछा.
"जब तक कोई बहरी मनुष्य आकर उन संदूकों को खोलता नहीं. इसके लिए वह यह आलम्ब दबाएगा." महर्षि ने कीलनुमा पत्थर की ओर संकेत किया, "जब उस मनुष्य के शरीर का ताप किसी संदूक के अन्दर पहुंचेगा तो संदूक में उपस्थित ताप प्रशीतन की अवस्था समाप्त करने का यंत्र क्रियाशील हो जाएगा. फ़िर चारों संदूकों के यंत्र एक विशेष प्रकार की ताप किरणें छोड़कर उन मानवों को पुनर्जीवित कर देंगे."
हम चारों आश्चर्य के साथ उनके इस अदभुत आविष्कार को देख रहे थे.
"अब तुम लोग सोच रहे होगे कि वह लोग कौन हैं जिन्हें इन संदूकों में लिटाया जाएगा. जो कई बरसों या शायद सैंकडों बरसों तक अस्थाई मृत्यु की अवस्था में इस कमरे में पड़े रहेंगे.......इन संदूकों की संख्या से शायद तुम कुछ अनुमान लगा सकते हो." महर्षि ने हमारी आँखों में झाँका.
संदूकों की संख्या चार थी और हम भी कुल चार थे. मामले को समझते ही हमारे शरीरों में एक सिहरन सी दौड़ गई. महर्षि का इरादा स्पष्ट था.
"तुम चारों मेरे सबसे होनहार शिष्यों में से हो. इसलिए यह अनुभव तुम्हारे ही शरीरों को प्राप्त होगा. यह अनुभव बहुत बड़ा जोखिम भी है. हो सकता है सैंकडों वर्षों में लोग यहाँ का रास्ता भूल जायें. यहाँ ये चारों संदूक हमेशा के लिए दुनिया की दृष्टि से दूर हो जायें. इसके बाद भी मुझे आशा है कि तुम लोग इसके लिए तैयार हो जाओगे." महर्षि ने आशा भरी दृष्टि से हमारी ओर देखा.
गुरूजी की आज्ञा हमारे लिए ईश्वर का आदेश थी. हम तैयार हो गए. जिस दिन हम जीवित ही अपने ताबूतों में जा रहे थे, स्वयं महाराजा हमें विदाई देने के लिए वहां तक आये. और उसके बाद हम एक लम्बी निद्रा में लीन हो गए.
और जब दोबारा हमारी आंख खुली तो तुम लोग हमारे सामने थे. और शायद हजारों वर्ष बीत चुके हैं अबतक." सियाकरण ने अपनी दास्तान ख़त्म करके जब प्रोफ़ेसर की तरफ़ देखा तो उसे सकते की हालत में पाया. ठहोका देकर जब उसे सामान्य हालत में लाया गया तो उसने सिर्फ़ इतना कहा, "मुझे मालूम न था कि पुराने समय में भी इतने महान वैज्ञानिक होते थे. हम लोग बेकार में आजकल के वैज्ञानिकों की बदाई किया करते हैं. मैं तो योगाचार्य जी के सामने धूल का फूल भी नहीं हूँ."
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(अब एक छोटा सा ब्रेक. एक शोर्ट स्टोरी के बाद ताबूत की कड़ियाँ आगे बढेंगी.)

1 comment:

seema gupta said...

"तुम चारों मेरे सबसे होनहार शिष्यों में से हो. इसलिए यह अनुभव तुम्हारे ही शरीरों को प्राप्त होगा
"" आश्चर्यजनक , अकल्पनीय..."
Regards