Sunday, November 15, 2009

प्लैटिनम की खोज - एपिसोड : 56

शमशेर सिंह सोचने लगा कि उसके हाथ में कौन सी वस्तु थी। फिर उसे याद आ गया, ‘‘वह मेरा सूटकेस था। अब कहां है वह?’’
‘‘वह एक अलग स्थान पर रखा है। सरदार का विचार था कि वह कोई हथियार है। अत: उसे सावधानीपूर्वक अलग रख दिया गया।’’

‘‘वह कोई हथियार नहीं बल्कि सामान रखने का बक्सा है। अगर तुम उसे ला सको तो मैं उसमें से अद्भुत वस्तुएं निकालकर तुम्हें दिखाऊंगा ।’’ शमशेर सिंह ने बताया।
‘‘ठीक है। मैं अभी लाती हूं।’’ अद्भुत वस्तुएं देखने की उत्सुकता में मोगीचना तुरन्त खड़ी हो गयी और फिर सूटकेस लाने के लिए चली गयी।

कुछ ही देर बाद वह सूटकेस लेकर वहां उपस्थित थी।
शमशेर सिंह ने सूटकेस खोला और मोगीचना की आखें आचर्य से फैल गयीं। क्यांकि अन्दर जो भी सामान रखा था उसे उसने पहली बार देखा था।

सबसे पहले शमशेर सिंह ने कंघा निकालकर अपने सर पर फेरना आरम्भ कर दिया।
‘‘यह क्या है?’’ मोगीचना ने कंघे की ओर संकेत किया।
‘‘यह बाल संवारने का यन्त्र है।’’
कंघा करने के बाद शमशेर सिंह ने सूटकेस में से दर्पण निकाला और उसमें अपना चेहरा देखने लगा।

‘‘यह क्या है?’’ एक बार फिर मोगीचना ने पूछा।
शमशेर सिंह ने दर्पण का मुख उसकी ओर कर दिया।

‘‘इसमें तो कोई औरत बन्द है।’’ मोगीचना ने चीख कर कहा।
‘‘बेवकूफ। ये औरत नहीं बल्कि तुम्हारी शक्ल है। जो इसमें दिखाई पड़ रही है।’’ शमशेर सिंह ने समझाया।

‘‘मैं समझ गयी। इसमें पानी जमा दिया गया है। क्योंकि जिस प्रकार तालाब के पानी में हमें अपनी शक्ल दिखाई देती है। उसी प्रकार इसमें भी दिख रही है।’’

शमशेर सिंह अपने मन में सोचने लगा कि दर्पण किस प्रकार बनाया जाता है किन्तु जब नहीं सोच सका तो बड़बड़ाया, ‘‘पता नहीं। ये तो केवल प्रोफेसर ही बता सकता है।’’

‘‘क्या तुमने कुछ कहा?’’ मोगीचना शमशेर सिंह की बड़बड़ाहट नहीं सुन सकी थी।
‘‘कुछ नहीं। मैं यह देख रहाथा कि जंगल में रहकर रहकर मैं एकदम काला हो गया हूं। तुम लोगों की तरह।’’

‘‘तुम यह दर्पण मुझे दे दो। मैं इसे अन्य कबीलेवासियों को दिखाउंगी ।’’
‘‘हरगिज नहीं। मैंने इसे पूरे पन्द्रह रुपये में खरीदा है’’ शमशेर सिंह ने दर्पण वाला हाथ पीछे कर लिया।
‘‘मेरे कबीले के युवक तो अपनी प्रेमिकाओं को हर वस्तु उपहार में दे देते हैं। और तुम मांगने पर भी नहीं दे रहे हो।’’ उसने शिकायत की।

‘‘वह सब बातें अपनी जगह पर। किन्तु मैं दर्पण नहीं दे सकता।’’
‘‘देखती हूं कैसे नहीं देते हो।’’ फिर दोनों में छीना झपटी होने लगी। मोगीचना की कोशिश थी दर्पण उसके हाथ में आ जाये जबकि शमशेर सिंह उसे छोड़ने के लिए तैयार नहीं था। इस चक्कर में दर्पण दोनों के हाथ से अलग हो गया। अगले ही पल एक छनाका हुआ और दर्पण चूर चूर हो चुका था।

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