Friday, September 25, 2009

प्लैटिनम की खोज - एपिसोड : 32

वह बुरी तरह घबरा गया और इसी घबराहट में वह पास के एक पेड़ पर चढ़ने का प्रयत्न करने लगा। इस प्रक्रिया में उसकी बुद्धि का कोई दखल नहीं था बस यह केवल स्वचालित प्रयास था । जब काफी देर प्रयास करने के बाद भी हर बार वह फिसल कर नीचे आ गया तो उसने अपना यह विचार त्याग दिया और सूटकेस उठाकर पैदल ही इधर उधर टहलकर अपनी स्थिति जानने का प्रयत्न करने लगा।

‘‘हाय, अब क्या होगा। मैं तो बैठे बिठाये मुसीबत में फंस गया। उस कंपनी ने तो मुझे मार डाला । लगता है अब मैं होने वाले बीवी बच्चों की शक्ल नहीं देख पांगा। ’’ वह जोर जोर से बड़बड़ा रहा था और साथ ही साथ बौखलाहट की दशा में इधर से उधर जा रहा था।

‘‘सारी कारस्तानी उस कमबख्त प्रोफेसर की है। न वह प्लेटिनम की खोज के लिए हामी भरता और न ये मुसीबत मेरे सामने आती। ----- उई। ’’ वह चीख पड़ा क्योंकि ठीक उसके सामने पेड़ से कोई जीव टपका था। शमशेर सिंह ने नीचे झुककर देखा, यह एक घोंघा था।

‘‘ओह! मै तो डर ही गया। ’’ एक जबरदस्ती की मुस्कुराहट उसके चेहरे पर आयी और वह हथेली से अपने चेहरे का पसीना पोंछने लगा। जब उसकी उंगलियां बालों तक पहुंचीं तो उनमें कोई लिजलिजी वस्तु फंस गयी। उसने जल्दी से उस वस्तु को पकड़कर खींचा। यह एक कनखजूरा था जो शायद उस समय उसके बालों में पहुंच गया था जब वह नीचे गिरा था।

‘‘ई--गी--गी!’’ उसने चिहुंक कर कनखजूरे को अपनी उंगलियों से दूर झटका और हांफने लगा। उसी समय पास की झाडियों से सरसराहट सुनाई पड़ी । उसने चौंक कर उधर देखा तो यह देखकर उसका मुंह खुला रह गया कि दो चमकीली आखें उसे घूर रही थीं।
‘यह तो साप लगता है।’ भय के कारण उसकी आखें फैल गयीं और वह तुरंत सरपट भागने के एक्शन में आ गया। उसी क्षण वह आखें झाड़ी से बाहर आ गयीं। यह एक मुर्गाबी थी जो आहट सुनकर बाहर आ गयी थी। झाड़ियों में उसने शायद अपना घोंसला बना रखा था। एक बार फिर शमशेर सिंह की जान जाते जाते पलट आयी।

‘‘ओफ मैं क्या करूं।’’ वह अपना बाल नोचता हुआ बोला। फिर उसकी दृष्टि एक ओर पड़ी और उसकी आखें चमक उठीं। क्योंकि वहां पर एक पगडंडी दिखाई पड़ रही थी।
‘‘हो न हो, यही जंगल से बाहर जाने का रास्ता है।’’ वह तुरंत उस रास्ते पर चल पड़ा। वह जल्द से जल्द जंगल से दूर निकलना चाहता था अत: उसने अपनी चाल काफी तेज रखी।
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प्रोफेसर चलते चलते अचानक रुक गया। उसकी दृष्टि किसी वस्तु पर पड़कर जम चुकी थी।
‘‘क्या बात है प्रोफेसर?’’ रामसिंह उसको यूं रुकता देखकर चौंक कर बोला।
‘‘मैं देख रहा हूं।’’ उसने उसी प्रकार उस दिशा में देखते हुए जवाब दिया।

‘‘क्या अभी तक नहीं देख रहे थे? ये स्पेशल देखना कैसा है जिसके लिए तुमने अपने कदम रोक दिये?’’
‘‘मैं उस ताड़पत्र को देख रहा हूं’’ प्रोफेसर ने उंगली से एक ओर संकेत किया। रामसिंह की भी नजर प्रोफेसर की उंगली का पीछा करती हुई उस ओर गयी।