"जब मैंने तुम लोगों को सदियों के बाद जागने के लिए ताबूतों में सुला दिया तो मेरे मन में यह विचार उत्पन्न हुआ की काश मैं भी तुम लोगों को उस युग में देख पाता जो तुम लोग हजारों वर्षों बाद देखने वाले थे. इसपर मैंने सोचना शुरू किया कि यह कैसे संभव हो सकता है. क्योंकि अपनी आयु बढ़ाना संभव नहीं था. कारण यह है कि मानव शरीर का आयु बढ़ने के साथ साथ क्षय होता रहता है. और यह क्षय अधिक आयु में इतना बढ़ जाता है कि उसे रोक पाना किसी शक्ति के बस का नहीं है. या फ़िर शरीर को इस प्रकार सुरक्षित कर लिया जाए जैसा कि तुम लोगों का किया था. किंतु मैं हजारों वर्ष पूरे होश - हवास के साथ बिताना चाहता था.
अब मैंने दूसरे पहलू से सोचना शुरू किया. मैंने सोचा कि पूरे शरीर की आयु बढ़ाने की बजाये यदि केवल अपना मस्तिष्क सुरक्षित कर लिया जाए तो उसको सतत रूप से किसी बाहरी स्रोत द्वारा ऊर्जा देकर उससे काफी समय तक काम लिया जा सकता है. फ़िर मैंने इस दिशा में काम शुरू कर दिया. मैंने एक विशेष प्रकार की धातु से यह मूर्ति बनाई जिसका क्षय नही होता था. इसकी संरचना हूबहू मानव शरीर जैसी थी. केवल इसमें मस्तिष्क नही था. अब समस्या थी इसमें अपना मस्तिष्क प्रत्यारोपित करने की और साथ ही ऐसा प्रबंध करना था कि यह मस्तिष्क कभी नष्ट न हो और साथ ही इसको अपना कार्य करने के लिए बराबर ऊर्जा मिलती रहे.
इस कार्य के लिए मैंने एक मशीन बनाई. यदि तुम इस मूर्ति के पीछे देखो तो एक बाक्स के आकार का यंत्र तुम्हें मूर्ति की पीठ से जुड़ा मिलेगा. इसका कार्य था मस्तिष्क को बराबर ऊर्जा पहुंचाते रहना और साथ ही ऐसा प्रबंध करना कि मस्तिष्क में हुई किसी भी टूट फ़ुट की तुंरत मरम्मत हो जाए.
यह प्रबंध करने के बाद अब समस्या थी कि मैं अपने मस्तिष्क को इस मूर्ति में कैसे प्रतिस्थापित करुँ. वास्तव में यही सबसे गहन समस्या थी. क्योंकि मैं स्वयें अपनी शल्य क्रिया करके अपने मस्तिष्क का प्रत्यारोपण इस मूर्ति में नहीं कर सकता था और किसी अन्य से यह कार्य नहीं करवा सकता था. क्योंकि किसी के पास इसकी योग्यता नहीं थी.
फ़िर मेरी इस समस्या का समाधान हो गया. क्योंकि महर्षि वीराचार्य ने मुझे सहयोग देना स्वीकार कर लिया था. तुम लोग शायद महर्षि वीराचार्य को नहीं जानते होगे क्योंकि वे बचपन में ही ज्ञान प्राप्त करने के लिए चीन चले गए थे और वहां से तब लौटे जब तुम लोग ताबूतों में सो गए थे. उनके बराबर चिकित्सा में प्रवीण उस समय और कोई नहीं था. मैं भी नहीं.
फ़िर उसके बाद मेरे आपरेशन की तय्यारियां शुरू हो गईं. एक ऐसा ऑपरेशन जिसके असफल होने का मतलब था मेरी मौत. और साथ ही इसका सफल होना भी मेरी मौत ही था, क्योंकि उसके बाद मेरा शरीर मृत हो जाता. किंतु उसके बाद एक नया जीवन भी मुझे मिलने जा रहा था. मैं एक मज़बूत धातु का लगभग अमर शरीर पा जाता.
अगले एपिसोड में पढिये इस रोचक कहानी का ट्विस्टिंग अंत.
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1 comment:
अरे वाह, चलिए अंतिम किस्त का तो नम्बर लगा।
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