Tuesday, September 30, 2008

ताबूत - एपिसोड 5

"किसी से पूछ कर देखते हैं." प्रोफ़ेसर ने कहा.

"तुम ही पूछो. हमें तो यहाँ की भाषा आती नहीं."

फिर प्रोफ़ेसर ने एक मकान का दरवाज़ा खटखटा कर वहां के निवासी से इसके बारे में पूछा तो पता चला कि मिकिर पहाडियाँ अभी तीन किलोमीटर दूर हैं.
"क्या यहाँ ठहरने कि कोई व्यवस्था है?" प्रोफ़ेसर ने पूछा.

"हाँ. पास ही में एक छोटा सा ढाबा है. वहां दो तीन लोगों के ठहरने की व्यवस्था हो सकती है." उस व्यक्ति ने ढाबे का पता बता दिया. ये लोग वहां पहुँच गए.
इस समय ढाबे में पूरी तरह सन्नाटा छाया था. ढाबे का मालिक सामने चारपाई डालकर सोया पड़ा था.किंतु जगह के बारे में पूछने पर इन लोगों को निराशा हुई. क्योंकि वहां बिल्कुल जगह नही थी.
"अब क्या किया जाए?" शमशेर सिंह ने पूछा.

"अब तो यही एक चारा है कि अपना सफर जारी रखें. अब मिकिर पहाड़ियों में पहुंचकर खजाने की खोज शुरू कर देनी है." प्रोफ़ेसर ने कहा.
"तुमने हम लोगों को मरवा दिया. यह समय तो आराम करने का था. अब वहां तक फिर तीन किलोमीटर पैदल चलना पड़ेगा." रामसिंह रूहांसी आवाज़ में बोला प्रोफ़ेसर से.

"आराम तो वैसे भी नही मिलना था. क्योंकि पहाड़ियों पर कोई हमारा घर नही है. अब अपना अभियान चाहे हम इस समय शुरू करें या सुबह से, कोई फर्क नही पड़ता." प्रोफ़ेसर ने इत्मीनान से कहा.
फिर वे तीनों आगे बढ़ते रहे. लगभग डेढ़ घंटा चलने के पश्चात् उन्हें पहाडियां दिखाई देने लगीं.

"लो यहाँ तक तो पहुँच गए, अब किधर चलना होगा?" रामसिंह ने पूछा.

"ज़रा ठहरो. मैं नक्शा निकाल कर देखता हूँ." प्रोफ़ेसर ने जवाब दिया. फिर तीनों ने अपने सामान वहीँ रख दिए और हांफने लगे. प्रोफ़ेसर ने अपनी जेब से वही किताब निकली और पलट कर नक्शा देखने लगा.

"प्रोफ़ेसर, तुमने इतनी कीमती किताब जेब में रखी थी. अगर किसी ने पार कर ली होती तो?" रामसिंह ने झुरझुरी लेकर कहा.

"तो इसे बेकार की चीज़ समझकर फेंक गया होता. क्योंकि मैं ने इसका कवर उतरकर दूसरा कवर चढा दिया है. जिसपर लिखा है मरने का तर्कशास्त्र. अब तर्कशास्त्र से भला किसी को क्या दिलचस्पी हो सकती है."
"तुम्हारी अक्ल की दाद देनी पड़ेगी प्रोफ़ेसर. अब बताओ कि नक्शा क्या कहता है?" शमशेर सिंह ने तारीफी नज़रों से उसे देखा.

"नक्शे के अनुसार हम इस जगह पर हैं." प्रोफ़ेसर ने एक जगह पर ऊँगली रखते हुए कहा. "अब हमें बाईं ओर बढ़ना होगा."
"क्या ये सामान भी ले चलना होगा. मेरे कंधे में तो दर्द होने लगा यह बैग लादे हुए." रामसिंह कराहकर बोला.

"सामान यहाँ क्या उचक्कों के लिए छोड़ जाओगे. मैं ने पहले ही कहा था कि हल्का सामान लो. अब तुम्हें तो हर चीज़ कि ज़रूरत थी. चाए बनने के लिए स्टोव, पानी कि बोतल, एक सेर नाश्ता, लोटा, तीन तीन कम्बल और पता नही क्या क्या. मैं कहता हूँ कि इन चीज़ों कि क्या ज़रूरत थी." शमशेर सिंह पूरी तरह झल्लाया हुआ था.
"मुझे क्या पता था कि यहाँ पर ठण्ड नही होती. वरना मैं तीन कम्बल न ले आता. मैं ने तो समझा कि चूंकि यहाँ पहाड़ हैं इस लिए ठण्ड भी होती होगी."

Wednesday, September 24, 2008

ताबूत - एपिसोड 4

अचानक बस एक झटके के साथ रूक गई. ऊंघने वाले इस झटके से चौंक पड़े और आँखें फाड़ फाड़ कर बस के ड्राईवर की तरफ़ देखने लगे, मानो वह किसी दूसरी दुनिया का व्यक्ति हो. हो सकता है यह बात कुछ लोगों के लिए सत्य रही हो. क्योंकि वे लोग शायद सपना देख रहे हों कि उनकी यात्रा किसी रॉकेट पर दूसरे ग्रह के लिए हो रही है. वैसे इस बारे में सपने देखने वाले ही बता सकते थे.
जब कुछ देर बीत गई और बस नही चली तो वे लोग बेचैन होने लगे. फिर किसी ने ड्राईवर से कारण जानना चाहा.

"बस के इंजन में लगता है कुछ खराबी आ गई है. मैं देखता हूँ." उसने खटारा बस का टूटा फूटा बोनट उठाया और कुछ देर इधर उधर इंजन में हाथ चलाया.

फिर इंजन स्टार्ट करने की कोशिश की. लेकिन इंजन ने साँस लेने से साफ इंकार कर दिया.

"क्या हुआ? खराबी समझ में आई?" कंडक्टर ने पूछा.

"कुछ समझ में नही आ रहा है. हमारा क्लीनर भी छुट्टी पर गया है. वरना वही कुछ करता."

उधर यात्री बेचैन होकर बार बार कंडक्टर और ड्राईवर से गाड़ी के बारे में पूछ रहे थे. कुछ यात्री बस से उतर कर इधर उधर टहलने लगे. अंत में कंडक्टर ने कहा,
"अब यह बस सुबह से पहले नही चल सकती. वैसे यहाँ से मिकिर पहाडियां ज़्यादा दूर नही हैं. जिन लोगों को वहां जाना है वे पैदल जा सकते हैं।"

लोगों में यह सुनकर घबराहट फ़ैल गई. वे लोग जिन्हें केवल मिकिर पहाडियों तक जाना था, अपना सामान उठाकर चलने का निश्चय करने लगे.
"क्या विचार है? इन लोगों के साथ निकल लिया जाए या सुबह तक रुका जाए?" रामसिंह ने पूछा.

"मेरा ख्याल है कि सुबह तक देख लिया जाए. हो सकता है बस तब तक ठीक हो जाए. वैसे भी इस समय अंधेरे में हम लोग रास्ता भटक सकते हैं." शमशेर सिंह ने कहा.
"बस का ठीक होना तो मुश्किल है. एक काम करते हैं. सामने दो व्यक्ति जा रहे हैं. वे लोग ज़रूर पहाड़ियों की ओर जा रहे हैं. उनके साथ हो लेते हैं." प्रोफ़ेसर ने अपनी राए दी.
"तो फिर जल्दी आओ. वे बहुत दूर निकल गए हैं."रामसिंह ने कहा. फिर वे लोग उन व्यक्तियों के पीछे चल पड़े.

लगभग आधा घंटा चलने के बाद एक आबादी दिखाई पड़ी. जिसमें केवल सात आठ घर थे. शायद ये कोई छोटा मोटा गाँव था. वे व्यक्ति चलते हुए एक मकान में घुस गए.

"क्या यही हैं मिकिर पहाडियाँ?" शमशेर सिंह ने पूछा.

"अबे बेवकूफ यहाँ तो मैदान है. पहाडियाँ किधर हैं?" रामसिंह ने शमशेर सिंह को ठहोका दिया.

Monday, September 22, 2008

ताबूत - एपिसोड 3

"हाँ. क्योंकि यह किताब भी उतनी ही पुरानी है जितनी पुरानी वह सभ्यता थी. अतः मुझे पूरा विश्वास है कि इसमें बना नक्शा उसी खजाने का नक्शा है."

"तो अब क्या विचार है?" राम सिंह ने पूछा.

"यह तो तुम ही लोग बताओगे." प्रोफ़ेसर ने कहा.
"मेरा ख्याल है कि हमें खजाना खोजने की कोशिश करनी चाहिए. हो सकता है कि वह हमारे ही भाग्य में लिखा हो." रामसिंह ने कहा.

"तो फिर ठीक है. तुम लोग असम चलने की तैयारी करो. मैं भी घर जाकर तैयारी करता हूँ. फिर कल परसों तक हम लोग प्रस्थान करेंगे." प्रोफ़ेसर ने कहा.

"ओ.के. प्रोफ़ेसर. हम लोग कल रात की ट्रेन से निकल चलेंगे. क्योंकि अब खजाना मेरी नज़रों के सामने नाचने लगा है. अतः अब हमें बिल्कुल देर नही करनी चाहिए." शमशेर सिंह बोला.
"ठीक है. लेकिन इस बात का ध्यान रखना कि ये बात हमारे अलावा और किसी के कान में नहीं पहुंचनी चाहिए. वरना वह हमारे पीछे लग जाएगा. और जैसे ही हम खजाना खोजकर निकलेंगे वह हमारी गर्दन दबाकर खजाना समेटकर रफूचक्कर हो जाएगा."
"तुम फिक्र मत करो प्रोफ़ेसर. यह बात हमारे कानों को भी न मालुम होगी." दोनों ने एक साथ उसे भरोसा दिलाया

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इसके दो दिन बाद वे लोग गौहाटी के रेलवे प्लेटफोर्म पर खड़े थे. इस समय रात के बारह बज रहे थे.

"क्या ख्याल है? मिकिर पहाडियों तक बस से चलें या किसी और सवारी से?" प्रोफ़ेसर ने पूछा.
"यार अभी सुबह तक तो यहीं रहो. इस समय तो रास्ता काफी सुनसान होगा." शमशेर सिंह ने राय दी.

"वह जगह तो दिन में भी सुनसान रहती है. जहाँ हम लोग जा रहे हैं. क्योंकि वहां केवल खंडहर और जंगल हैं." रामसिंह ने फ़ौरन उसकी बात काटी.
"फिर तो वहां भूतों का भी डेरा हो सकता है." शमशेर सिंह ने आशंका प्रकट की.

"बकवास. मैं भूतों पर विश्वास नही करता. मेरा विचार है कि हम लोगों को इसी समय प्रस्थान कर देना चाहिए. क्योंकि खजाना ढूँढने में बहुत दिन लग सकते हैं. अतः बेकार में समय नष्ट नही करना चाहिए." देवीसिंह उर्फ़ प्रोफ़ेसर देव ने कहा.

फिर यही तै पाया गया कि वे लोग उसी समय बस द्वारा मिकिर पहाडियों के लिए प्रस्थान कर जाएँ. कुछ ही देर में उन्हें बस मिल गई और वे उसमें बैठ गए. इस समय बस में लगभग तीस पैंतीस लोग बैठे थे. अधिकतर तो ऊंघ रहे थे. ये लोग भी बैठकर ऊंघने का कार्य करने लगे. बस अपनी रफ़्तार से यात्रा पूरी करने लगी.

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Sunday, September 21, 2008

ताबूत - एपिसोड 2


"फिर तुम दांत निकाल निकाल कर इतना खुश क्यों हो रहे हो?" शमशेर सिंह ने पूछा.

"बात ये है कि इस बार मैं ने छुपा खजाना ढूंढ लिया है."

"क्या?" दोनों ने उछालने की कोशिश में प्यालियों कि चाए अपने ऊपर उँडेल ली. अच्छा ये हुआ कि चाए अब तक ठंडी हो चुकी थी.

"हाँ. मैं ने एक ऐसा खजाना ढूँढ लिया है जो आठ सौ सालों से दुनिया की नज़रों से ओझल था. अब मैं उसको ढूँढने का गौरव हासिल करूंगा." प्रोफ़ेसर अपनी धुन में पूरे जोश के साथ बोल रहा था.
"करूंगा? यानी तुमने अभी उसे प्राप्त नही किया है." शमसेर सिंह ने बुरा सा मुंह बनाया.

"समझो प्राप्त कर ही लिया है. क्योंकि मैं ने उसके बारे में पूरी जानकारी नक्शे समेत हासिल कर ली है."

"कहीं वह शहर के पुराने सीवर सिस्टम का नक्शा तो नही है?" रामसिंह ने कटाक्ष किया.

"ऐसे नक्शे तुम ही को मिलते होंगे." प्रोफ़ेसर ने बुरा मानकर कहा, "यह नक्शा मुझे एक ऐसी लाइब्रेरी से मिला है जहाँ बहुत पुरानी किताबें रखी हैं. पहले तुम ये किताब देख लो, फिर आगे मैं कुछ कहूँगा." कहते हुए देवीसिंह ने एक किताब उसकी तरफ़ बढ़ा दी. किताब बहुत पुरानी थी. उसके पन्ने पीले होकर गलने की हालत में पहुँच गए थे.
"यह किताब तो किसी अनजान भाषा में लिखी है."

"हाँ. मैंने ये किताब भाषा विशेषज्ञों को दिखाई थी. उनका कहना है कि यह भाषा असमिया से मिलती जुलती है. और यह देखो." कहते हुए प्रोफ़ेसर ने पन्ने पलटकर एक नक्शा दिखाया."यह कहाँ का नक्शा है?"
"ये तो भारत के पूर्वी छोर का नक्शा लग रहा है." रामसिंह ने कहा.

"हाँ. ये भारत के पूर्वी छोर का नक्शा है. इसमें असम साफ़ दिखाई पड़ रहा है. इसका मतलब ये हुआ कि ये किताब असम से सम्बंधित है. और यह एक और नक्शा देखो. क्या तुम्हें यह मिकिर पहाडियों का नक्शा नही लग रहा है?"
"लग तो रहा है." दोनों ने एक साथ कहा.
"मुझे पूरा विश्वास है कि यह खजाने का नक्शा है. जो मिकिर पहाडियों में कहीं छुपा हुआ है. क्योंकि मैं ने पढ़ा है कि वहां पहले एक सभ्यता आबाद थी. जो बाहरी आक्रमण के कारण नष्ट हो गई थी. उसके अवशेष अब भी वहां मिलते हैं. वह सभ्यता बहुत धनवान थी. मैं ने यह भी सुना है कि वहां का राजा बाहरी आक्रमण से पहले ही आशंकित था. इसलिए उसने अपने फरार का पूरा इन्तिजाम कर लिया था. और इसी इन्तिजाम में उसने अपना खजाना एक गुफा में छुपा दिया था. हालाँकि वह फरार नही हो पाया क्योंकि महल के एक निवासी ने गद्दारी कर दी थी. शत्रु राजा ने उस राजा को मरवा दिया किंतु उसे राजा का खजाना नही मिल सका. उसके बाद खजाने का पता लगाने की बहुत कोशिश की गई, किंतु कोई सफलता नही मिली."
"तुम्हारे अनुसार उसी खजाने का यह नक्शा है?" रामसिंह ने पूछा.

Thursday, September 18, 2008

ताबूत - एपिसोड 1

उन तीनों के बीच उस वक्त से गहरी दोस्ती थी जब वे लंगोटी भी नही पहनते थे.उनमें से शमशेर सिंह अपने नाम के अनुरूप भारी भरकम था. लेकिन दिल का उतना ही कमज़ोर था. कुत्ता भी भौंकता था तो उसके दिल की धड़कनें बढ़ जाया करती थीं. हालांकि दूसरों पर यही ज़ाहिर करता था जैसे वह दुनिया का सबसे बहादुर आदमी है. बाप मर चुके थे और ख़ुद बेरोजगार था. यानि तंगहाल था.
दूसरा दुबला पतला लम्बी कद काठी का रामसिंह था. इनके भी बाप मर चुके थे. और मरने से पहले अपने पीछे काफी पैसा छोड़ गए थे. जिन्हें जल्दी ही नालाएक बेटे ने दोस्तों में उड़ा दिया था. यानी इस वक्त रामसिंह भी फटीचर था.
और तीसरा दोस्त देवीसिंह, जिसके पास इतना पैसा रहता था कि वह आराम से अपना काम चला सकता था. लेकिन वह भी अपने शौक के कारण हमेशा फक्कड़ रहता था. उसे वैज्ञानिक बनने का शौक था. अतः वह अपना सारा पैसा लाइब्रेरी में पुराणी और नई साइंस की किताबें पढने में और तरह तरह के एक्सपेरिमेंट पढने में लगा देता था. वह अपने को प्रोफ़ेसर देव कहलाना पसंद करता था. यह दूसरी बात है कि उसके एक्सपेरिमेंट्स को अधिकतर नाकामी का मुंह देखना पड़ता था. मिसाल के तौर पर एक बार इन्होंने सोचा कि गोबर कि खाद से अनाज पैदा होता है जिसे खाकर लोग तगडे हो जाते हैं. क्यों न डायरेक्ट गोबर खिलाकर लोगों को तगड़ा किया जाए. एक्सपेरिमेंट के लिए इन्होंने मुहल्ले के एक लड़के को चुना और उसे ज़बरदस्ती ढेर सारा भैंस का गोबर खिला दिया. बच्चा तो बीमार होकर अस्पताल पहुँचा और उसके पहलवान बाप ने प्रोफ़ेसर को पीट पीट कर उसी अस्पताल में पहुँचा दिया.
प्रोफ़ेसर देव उर्फ़ देवीसिंह को एक शौक और था. लाइब्रेरी में ऐसी पुरानी किताबों की खोज करना जिससे किसी प्राचीन छुपे हुए खजाने का पता चलता हो. इस काम में उनके दोनों दोस्त भी गहरी दिलचस्पी लेते थे. कई बार इन्हें घर के कबाड़खाने से ऐसे नक्शे मिले जिन्हें उनहोंने किसी पुराने गडे हुए खजाने का नक्शा समझा. बाद में पता चला कि वह घर में बिजली की वायेरिंग का नक्शा था.
एक दिन शमशेर सिंह और रामसिंह बैठे किसी गंभीर मसले पर विचार विमर्श कर रहे थे. मामले की गंभीरता इसी से समझी जा सकती थी की दोनों चाये के साथ रखे सारे बिस्किट खा चुके थे लेकिन प्यालियों में चाये ज्यों की त्यों थी. उसी वक्त वहां देवीसिंह ने प्रवेश किया. उसके चेहरे से गहरी प्रसन्नता झलक रही थी."क्या बात है प्रोफ़ेसर देव, आज काफी खुश दिखाई दे रहे हो. क्या कोई एक्सपेरिमेंट कामयाब हो गया है?" रामसिंह ने पूछा."शायेद वो वाला हुआ है जिसमें तुम बत्तख के अंडे से चूहे का बच्चा निकालने की कोशिश कर रहे हो." शमशेर सिंह ने अपनी राय ज़ाहिर की."ये बात नही है. वो तो नाकाम हो गया. क्योंकि जिस चुहिया को अंडा सेने के लिए दिया था उसने उसको दांतों से कुतर डाला. अब मैं ने उस नालायेक को उल्टा लटकाकर उसके नीचे पानी से भरी बाल्टी रख दी है. क्योंकि मैं ने सुना है कि ऐसा करने पर चूहे एक ख़ास एसिड उगल देते हैं जिसको चांदी में मिलाने पर सोना बन जाता है."

...........continued