लेखक - ज़ीशान हैदर ज़ैदी
यह एक नाइट क्लब था, जहाँ करोड़पति अरबपति घरानों के नौजवान लड़के लड़कियां अपनी शामों को गुज़ारते थे। हालांकि यहाँ शाम कहना गलत होगा क्योंकि उनमें से अक्सर पूरी रात ही वहाँ गुज़ार देते थे, किसी हसीन या जवान साथी के साथ।
उनमें से दो जोड़े ऐसे भी थे जो इधर पूरे एक साल से उस क्लब की जान बने हुए थे। क्योंकि उन्हें हर रोज़ वहाँ न सिर्फ देखा जाता था बल्कि वे वहां के हर प्रोग्राम में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते थे।
इस वक्त भी दोनों जोड़े क्लब के बार में मौजूद थे और मंहगी शराब की चुस्कियों के साथ हंसी मज़ाक कर रहे थे।
‘‘यार, तुम्हें अपनी लवर बनाने के लिये मेरी ही बहन मिली थी?’’ एक लड़के ने दूसरे लड़के के कंधे पर हाथ मारा।
‘‘तुमने मेरी बहन से इश्क किया और मैंने तुम्हारी बहन से। मामला बैलेंस हो गया।’’
‘‘देखो अरुण, संजय..’’ एक लड़की हाथ उठाकर बोली, ‘‘हम दोनों के फादर आपस में गहरे दोस्त हैं। अब हम उस दोस्ती को एक कदम आगे बढ़ाकर रिश्तेदारी में बदल रहे हैं। इसमें बुराई क्या है।’’
‘‘तो मैंने कब कहा कि इसमें बुराई है। क्यों रिया?’’ अरुण ने बगल में बैठी रिया को प्यार भरी नज़रों से देखा जो संजय की बहन थी और उसकी गर्लफ्रेंड।
‘‘तो यही बात तो दीपा भी कह रही है।’’ रिया की बात पर वहाँ एक ठहाका गूंजा। उसी वक्त वहाँ एक हल्का म्यूज़िक गूंजने लगा जो कि फ्लोर पर डाँस करने वालों के लिये एक बुलावा था। फिर अरुण ने रिया का हाथ थामा और संजय ने दीपा का और फिर दोनों जोड़े डाँस के लिये स्टेज की तरफ बढ़ गये।
इस बात में कोई शक नहीं था कि इन लोगों के माँ बाप आपस में गहरे दोस्त थे। और ये दोस्ती बीसियों साल पुरानी थी। संजय व रिया मशहूर इण्डस्ट्रियलिस्ट मिस्टर मेहता के लड़के थे जबकि अरुण व दीपा के बाप मिस्टर कपूर कई बड़े होटलों के मालिक थे। उन्हें भी मालूम था कि उनके बच्चे आपस में न सिर्फ गहरे दोस्त हैं बल्कि प्यार भी करते हैं और उनका खुद का ख्याल यही था कि वे उनक शादी जल्दी ही कर दें ताकि उनकी बरसों पुरानी दोस्ती रिश्तेदारी में बदल जाये।
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उस वक्त रात के बारह बज रहे थे जब वे थकान से चूर होकर क्लब से बाहर निकले। अब वे घर जाने के लिये अपनी कारों की तरफ बढ़ रहे थे जो पार्किंग में आसपास ही मौजूद थीं। वे चारों हल्के नशे में थे और एक दूसरे का हाथ इस तरह थामे हुए थे मानो हाथ छोड़ते ही डिस्बैलेंस होकर गिर जायेंगे।
जल्दी ही पार्किंग में पहुंच गये। लेकिन कार से थोड़ी ही दूरी पर उनके कदम ठिठक गये।
‘‘अरे! फादर जोज़फ। आप यहाँ क्या कर रहे हैं?’’ संजय ने सामने मौजूद व्यक्ति को देखकर पूछा जिसका वेश किसी पादरी की तरह था और जो उनकी कार से टेक लगाकर खड़ा हुआ था।
‘‘मैं तुम लोगों का इंतिज़ार कर रहा था मेरे बच्चों। एक बहुत ज़रूरी काम के लिये।’’ फादर जोज़फ की आवाज़ में काफी गंभीरता थी।
(जारी है)
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ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, बजरंगी भाईजान का सब्स्टिटूट - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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