Friday, November 29, 2013

हिंदी नाटकों में साइंस फिक्शन-परिचर्चा

 अवध कंबाइंड नाटय एकेडमी लखनऊ में 28 नवंबर 2013 को एक परिचर्चा 'हिंदी नाटकों में साइंस फिक्शन आयोजित हुई। इस परिचर्चा में दिल्ली की रिसर्च स्कोलर चारू मैथानी की बातचीत लखनऊ के नाटय व कथा लेखक डा0ज़ीशान हैदर ज़ैदी, डा0ज़ाकिर अली रजनीश व निर्देशक शराफत खान, अरशद उमर व इमरान खान के साथ हुई। साथ में बाराबंकी की साइंस फिक्शन लेखिका बुशरा अलवेरा व एकेडमी के छात्र भी उपस्थित थे। परिचर्चा में हिंदी नाटकों में साइंस फिक्शन कितना उपस्थित है और भविष्य में इसकी क्या संभावनाएं हैं इसपर चर्चा हुई। इस अवसर पर डा0ज़ीशान हैदर ज़ैदी के विभिन्न साइंस फिक्शन नाटक पागल बीवी का महबूब, ऊंची टोपी वाले, बुडढा फ्यूचर, सौ साल बाद और डा0ज़ाकिर अली रजनीश के कुछ रेडियो नाटकों का उदाहरण लेते हुए यह निष्कर्ष निकाला गया कि हिंदी नाटकों में साइंस फिक्शन पर कुछ लेखक गंभीरता से काम कर रहे हैं और शराफत खान, अरशद उमर व इमरान खान जैसे निर्देशक उसके मंचन का अनथक प्रयास भी कर रहे हैं। किंतु अभी भी रंगमंच की दुनिया में साइंस फिक्शन एक अजनबी विधा ही है।
आमतौर पर लोग समझते हैं कि साइंस फिक्शन केवल बड़े बजट की फिल्मों में ही दिखाया जा सकता है और स्टेज पर मंहगी मशीनों, साइंस की लैब, साइंटिफिक एक्सपेरीमेन्टस, अंतरिक्ष इत्यादि को दिखाना बहुत मुश्किल है। लेकिन बुडढा फ्यूचर और पागल बीवी का महबूब इत्यादि नाटकों का मंचन इस धारणा को तोड़ता है। बुडढा फ्यूचर की टाइम मशीन मात्र गत्ते के डिब्बे और प्लास्टिक की स्क्रीन द्वारा बनाई गयी थी और रोबोटों को दिखाने के लिये भी खास तरह के फ्लोरेसेंट वस्त्रों का इस्तेमाल किया गया था। जबकि प्रकाश व ध्वनि द्वारा भविष्य का माहौल दिखाया गया। 'पागल बीवी का महबूब' में वैज्ञानिक की बनाई टेबलेटस द्वारा भावनाओं का बदलना कुशल अभिनय द्वारा दिखाया गया। निर्देशक अरशद उमर ने बताया कि अंतरिक्ष का माहौल प्रकाश व ध्वनि के अच्छे प्रयोग द्वारा प्रभावी ढंग से उकेरा जा सकता है। व दूसरे ग्रहों के लोगों की बातचीत संवादों की रिकार्डिंग कर और उनमें फिर एडिटिंग के द्वारा स्पेशल इफेक्टस डालकर दिखाई जा सकती है। हालांकि बहुत कुछ नाटकों में संवादों द्वारा ही बताना संभव होता है अत: एक अच्छे साइंस फिक्शन नाटक में स्क्रिप्ट की अहमियत सबसे ज्यादा होती है। 

शराफत खान के पास फिल्म निर्देशन का लंबा अनुभव है जिसमें एबीसीएल की फिल्म तेरे मेरे सपने शामिल है। इस अनुभव का उपयोग वे साइंस फिक्शन नाटकों के मंचन में इस तरह करते हैं कि दर्शकों को लगता है मानो वे कोई साइंस फिक्शन फिल्म ही देख रहे हैं। डा0ज़ाकिर अली रजनीश ने बताया कि रेडियो नाटकों में सब कुछ ध्वनि से ही बताया जाता है अत: उनमें स्पेशल इफेक्टस डालकर साइंस फिक्शन का माहौल उत्पन्न किया जा सकता है। उन्होंने ये भी कहा कि साइंस फिक्शन कहानियां भी समाज से ही निकलती हैं अत: उनके साथ सौतेला व्यवहार नहीं होना चाहिए। लेखिका बुशरा बलवेरा ने नाटकों में उर्दू की उपयोगिता पर बल दिया और कहा कि इससे नाटक के संवाद प्रभावशाली हो जाते हैं। 

अवध कंबाइंड नाटय एकेडमी के निदेशक इमरान खान के धन्यवाद प्रस्ताव के साथ परिचर्चा का समापन हुआ। 

4 comments:

अभिषेक मिश्र said...

यू-ट्यूब पर हिन्दी में साइंस फिक्सन पर कोई नाटक डाला जा सकता है क्या ? प्रसार में भी काफी सहायक सिद्ध हो सकता है।

zeashan haider zaidi said...

कोशिश करूंगा कि पागल बीवी का महबूब यू ट्यूब पर अपलोड कर दूं.

Arvind Mishra said...

Great going...keep it up! A photo should have been also uploaded!

वसुन्धरा पाण्डेय said...

सुन्दर आलेख.. !!