Monday, December 21, 2009

प्लैटिनम की खोज - अंतिम एपिसोड (78)


चेयरमैन ने कहना आरम्भ किया, ‘‘हमारी कंपनी आर-डी-बी-ए- अर्थात रीजनल डेवलपमेन्ट फॉर बिजनेस एप्लीकेशंस का कार्य है जंगलों, बीहड़ों इत्यादि में रहने वाली जंगली जनजातियों के बारे में जानकारी प्राप्त करना। जब हमारी पार्टी इस ओर आती थी तो अक्सर जंगल के छोर पर कुछ जंगली हमें दिखाई पड़ते थे। इसका अर्थ था कि जंगल के अन्दर कोई न कोई बस्ती अवश्य  बसी है। इसी बस्ती के अध्ययन के लिए आप लोगों को चुना गया।’’

‘‘लेकिन हमें तो प्लेटिनम की खोज के लिए वहां भेजा गया था।’’ प्रोफेसर ने कहा।
‘‘हां। क्योंकि हमने अपने इस प्रोजेक्ट का नाम आपरेशन प्लेटिनम डिस्कवरी रखा था। क्योंकि किसी नयी जनजाति की खोज हमारे लिए प्लेटिनम से कम महत्वपूर्ण नहीं है। चूंकि इस कार्य में काफी जोखिम था। जंगली जनजाति का व्यवहार किस प्रकार का होगा, हमें नहीं मालूम था। अत: इस कार्य के लिए हमने स्वयं न जाकर आप जैसे जाँबाजों को भेजा।’’ चेयरमैन की बात पर तीनों के चेहरे गर्व के कारण फूल गये। उन्हें इसका भी ध्यान नहीं था कि वे बलि के बकरे बनाये गये हैं।

‘‘किन्तु यह फिल्म किस प्रकार बनी?’’ रामसिंह ने पूछा।
‘‘आप लोगों को जो बेल्ट दी गयी थी, उसमें पावर फुल माइक्रो कैमरे और ट्राँस्मीटर लगे हुए थे जो बहुत छोटी बैटरी से चलते थे। वह बैटरी भी उसी बेल्ट में लगी थी। ये कैमरे तथा ट्राँस्मीटर तस्वीर और आवाजों को कैच करके उस बिल्डिंग तक पहुंचा देते थे जहां एक रिसीवर उन्हें कैच कर लेता था। इस प्रकार यहां बैठे बैठे एक फिल्म तैयार हो गयी।

रामसिंह एक ठण्डी साँस लेकर बोला, ‘‘और हम लोग मुफ्त में बलि का बकरा बन गये।’’
‘‘मुफ्त में नहीं। आप लोगों का परिश्रमिक तैयार है।’’ चेयरमैन ने मेज की दराज खोलकर तीन लिफाफे निकाले और तीनों की ओर बढ़ाते हुए बोला, ‘‘हर लिफाफे में पचास पचास हजार रुपये मौजूद हैं साथ में घर जाने के लिए प्लेन का टिकट भी। अभी थोड़ी देर में हमारी कार आयेगी जो आप लोगों को एयरपोर्ट पहुंचा देगी। और हां। जो झोंपड़ी आपको जंगल यात्रा से पहले मिली थी, वह हम लोगों ने बनवायी थी। आपके आवास के लिए।’’
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इसके एक सप्ताह बाद!
‘‘क्यों प्रोफेसर क्या हो रहा है?’’ शमशेर सिंह रामसिंह के साथ प्रोफेसर के कमरे में प्रविष्ट हुआ।

‘‘मैं ऐसे कैमरे का आविष्कार कर रहा हूं जो दूर की तस्वीरों को कैच करके मेरे पास भेज सके।’’ किसी पुराने रेडियो के पुर्जे निकालते हुए प्रोफेसर ने कहा।
‘‘उस कंपनी ने रकम तो अच्छी खासी दे दी।’’ शमशेर सिंह बोला।

‘‘पचास हजार रुपल्ली अच्छी रकम है? इतने का तो सामान मैं जंगल में छोड़ आया। अब मुझे नये सिरे से अपनी प्रयोगशाला के लिए सामान लेना पड़ेगा।’’ प्रोफेसर ने झल्लाहट भरे स्वर में कहा।

‘‘क्यों रामसिंह, तुम्हारे और हमारे लिए तो ठीक है वह रकम?’’ शमशेर सिंह ने रामसिंह को ठहोका दिया, जो किसी विचार में गुम था।
‘‘मुझसे कुछ मत बोलो। हाय मेरी मोली तू वहीं जंगल में छूट गयी और मैं यहां अकेला बोर हो रहा हूं। किन्तु तू चिन्ता मत करना। मैं तेरा गम गलत करने के लिए कल ही से महिला कालेजों के चक्कर काटना शुरू कर दूंगा।’’ रामसिंह भर्रायी हुई आवाज में आँखों पर हाथ रखे हुए कह रहा था। जबकि प्रोफेसर और शमशेर सिंह कभी उसकी ओर तो कभी एक दूसरे की ओर देख रहे थे।

--समाप्त--

जीशान हैदर जैदी 

9 comments:

Arvind Mishra said...

रोचक हास्य विज्ञानं कथा -बधाई!

www.SAMWAAD.com said...

Mubarak ho. Manzil mil hi gayi.

JesusJoseph said...

very good post, keep writings.
Very informative

Thanks
Joseph
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Dr. Zakir Ali Rajnish said...

अब कोई नई खोज भी तो प्रारम्भ हो।
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घूँघट में रहने वाली इतिहास बनाने निकली हैं।
खाने पीने में लोग इतने पीछे हैं, पता नहीं था।

Kaviraaj said...

बहुत अच्छा ।

अगर आप हिंदी साहित्य की दुर्लभ पुस्तकें जैसे उपन्यास, कहानियां, नाटक मुफ्त डाउनलोड करना चाहते है तो कृपया किताबघर से डाउनलोड करें । इसका पता है:

http://Kitabghar.tk

zeashan haider zaidi said...

Dhanywad Kaviraaj Ji

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

अब तो कोईदूसरी खोज प्रारम्भ हो जानी चाहिए।
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संवाद सम्मान 2009
जाकिर भाई को स्वाईन फ्लू हो गया?

Gautam said...

sir, bahut din se is tarah ka blog khoj raha tha. Bhatakte Bhatakte aaj mil hi Gaya.
Thank you

zeashan haider zaidi said...

Aapka swagat hai Gautam Ji