‘‘वह तो मैं भी देख रहा हूं कि तुम कोई शेर चीता नहीं हो। लेकिन कहां से आयी हो? क्या नाम है? इधर आने की क्या आवश्यकता थी?’’ रामसिंह ने एक साथ कई प्रश्न कर डाले। प्रोफेसर और शमशेर सिंह में से अभी भी कोई नहीं जागा था।
‘‘मेरा नाम मोली है और मैं यहां अण्डे चुराने आयी थी।’’ उसने बताया।
‘‘ऐं!’’ रामसिंह का मुंह भाड़ सा खुल गया, ‘‘तुम्हें अण्डे चुराने की क्या आवश्यकता थी जबकि सरदार का आदेश है कि अण्डे हर घर में पहुंचाये जायें।’’
‘‘मुझे अण्डे बहुत पसंद हैं जबकि यहां कुंवारी स्त्रियों को अण्डे खाने की मनाही है। अत: लाचार होकर मुझे अण्डे चुराने पड़े।’’
‘‘ओह! च--च ये तो बड़े दु:ख की बात है।’’ रामसिंह ने अफसोस प्रकट किया।
‘‘तीन दिन तो मैं अपने काम में सफल रही लेकिन आज मेरे ग्रह बुरे चल रहे थे।’’ उसने अपने सर पर हाथ फेरते हुए कहा।
‘‘तुम चिन्ता मत करो। रोज इस समय आकर मुझसे मिल लिया करो। मैं तुम्हें कुछ अण्डे दे दिया करूंगा।’’ रामसिंह ने उसे दिलासा दिया।
‘‘क्या सच? फिर तो मैं जीवन भर तुम्हारा उपकार मानूंगी।’’ उसने खुश होकर कहा।
‘‘इसमें उपकार की कोई बात नहीं। मैं तो तुम लोगों का देवता हूं। और देवता का काम ही है परोपकार करना।’’
‘‘तो फिर मैं जाऊं?’’ उसने पूछा।
‘‘अवश्य । अब जल्दी से वापस जाओ वरना मेरे साथी उठ गये तो मुसीबत हो जायेगी। ये लोग क्रूर देवता हैं।’’
मोली भयभीत होकर तुरंत उठ खड़ी हुई और बाहर जाने लगी। उसके साथ साथ रामसिंह भी बाहर निकल आया।
‘‘ये रख लो और चुपचाप निकल जाओ।’’ रामसिंह ने उसके हाथ में दो अण्डे रख दिये।
‘‘याद रखना। तुम्हें रोज इसी समय आना है। वरना यहां मेरी बजाय कोई और मिलेगा।’’
उसने सर हिलाया और फिर आगे बढ़कर रात के अँधेरे में विलीन हो गयी।
रामसिंह ने एक ठण्डी साँस ली और वापस झोंपड़ी के अन्दर चला गया। अब वह प्रोफेसर को जगा रहा था क्योंकि उसका पहरा देने का समय पूरा हो गया था।
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