Tuesday, October 20, 2009

प्लैटिनम की खोज - एपिसोड : 44

सरदार की सजावट देखते ही बनती थी। पूरा चेहरा चूने की बनी सफेद धारियों से पुता हुआ था। नाक के नथुनों से किसी पेड़ की पत्तियां लटक रही थीं। गले में सफेद गोल पत्थरों का बना हार पड़ा था। जबकि सर के बालों को गूंध कर दो चोटियां बनायी गयी थीं। इन चोटियों को बांस की खपच्चियों से सजाया गया था। सरदार के शरीर का सबसे दर्शनीय स्थल उसकी तोंद थी जो उसके घुटनों तक लटक रही थी। लताओं से बनी एक रस्सी ने नीचे से उसे रोक रखा था जो कुर्सी के हत्थे से बंधी थी। वरना यह तोंद और नीचे लटक जाती।

‘‘अभिवादन करो।’’ उन्हें देखते ही सरदार ने कहा और शमशेर सिंह ने आश्चर्य से अपने साथ आये जंगलियों की ओर देखा। क्योंकि सारे जंगलियों ने अपना बायां पैर सरदार की दिशा में उठा दिया था। अभी वह इसपर आश्चर्य कर ही रहा था कि सरदार की दहाड़ गूंजी, ‘‘इस कमबख्त ने मेरा अभिवादन क्यों नहीं किया।’’
‘‘यह अभी नया है। इसे यहां का नियम नहीं मालूम।’’ एक ने स्पष्टीकरण दिया।

‘‘तो इसे बता दो यहां का नियम।’’ सरदार ने शमशेर सिंह की ओर उंगली उठाकर कहा। एक जंगली शमशेर सिंह की ओर बढ़ा और इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता, उस जंगली ने झुककर उसका बायां पैर उठाकर सरदार की ओर कर दिया। शमशेर सिंह इसके लिए तैयार नहीं था अत: वह पीछे की ओर उलट गया।

‘‘सत्यानाश । इसने हमारा अपमान कर दिया।’’ सरदार दहाड़ा, ‘‘मेरे सामने किसी को पीछे गिरने की आज्ञा नहीं। अगर गिरना है तो आगे की ओर गिरे। इसे सजा मिलनी चाहिए।’’
‘‘सरदार। हम इसे जंगल से पकड़कर लाये हैं। आपको नर मांस खाने की बहुत दिनों से इच्छा थी अत: हमने प्रबंध कर दिया।’’ एक जंगली बोला।

‘‘वाह वाह! बहुत खूब।’’ सरदार खुश हो गया, ‘‘बहुत दिनों बाद हमारी इच्छा पूरी होगी। मैं तो इसे पूरे का पूरा चट कर जाऊँगा ।’’ होंठों पर जीभ फेरते हुए वह शमशेर सिंह को घूरने लगा।

शमशेर सिंह की समझ में उन जंगलियों की भाषा बिल्कुल नहीं आ रही थी। उसे नहीं मालूम था कि उसके साथ क्या होने वाला है। उसने जब सरदार को अपनी ओर घूरते पाया तो बोल उठा, ‘‘भाई साहब, आप ही कुछ करिये। ये लोग तो मेरी कुछ सुनने के लिए तैयार ही नहीं हैं। मुझे प्रोफेसर और कंपनी वालों ने भड़का दिया, वरना मुझे क्या पड़ी थी यहां आने की। आप उन लोगों का पता नोट कर लीजिए और मुझे छोड़ दीजिए। मैं वादा करता हूं कि अब कभी यहां आने की गुस्ताखी नहीं करूंगा।’’

‘‘यह क्या बोल रहा है?’’ सरदार ने पूछा।
‘‘लगता है, यह प्रसन्न होकर आपका गुणगान कर रहा है। सरदार का भोजन बनना बड़े सौभाग्य की बात होती है।’’ एक जंगली ने व्याख्या की जो सरदार के दायीं ओर बैठा था।

‘‘तो फिर ठीक है। कल प्रेमदिवस है। कल जब हमारे कुवारे युवक युवतियां अपने जोड़े बना लेंगे, उसके बाद उत्सव होगा और फिर हम इसका सेवन करेंगे। अब तुम लोग भी जाकर उत्सव की तैयारी करो।’’ उसने शमशेर सिंह के साथ आये जंगलियों को संबोधित किया।

‘‘जो आज्ञा।’’ सब ने एक साथ अपन बाया पैर उठाकर सरदार का अभिवादन किया और फिर बाहर निकल गये। साथ में शमशेर सिंह को भी लेते गये।
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2 comments:

Arvind Mishra said...

तिलिस्म और हास्य की जुगलबंदी -हा हा ही ही !

Arshia Ali said...

ये खोज जारी रहनी चाहिए।
( Treasurer-S. T. )