Thursday, November 27, 2008

साइंस फिक्शन - भूत, वर्तमान, भविष्य : संस्मरण - 7


शाम को बनारस का असली रंग जमा. यानी उस्ताद अली अब्बास खां ने सबको अपने शहनाई वादन से फैज़आब किया. आसमान से शबनम रुपी मोती गिर रहे थे और सामने से आ रही थीं शहनाई की मधुर लहरियां. लग रहा था, स्वर्ग धरती पर आ गिरा है.

जुरासिक पार्क के लेखक माइक क्रिक्स्टन पर एक श्रद्धांजली के बाद उस्ताद का शहनाई वादन शुरू हुआ. हमारे राजन मियां स्टिल कैमरे से उसे रिकॉर्ड करने लगे. बाद में हमने उन्हें समझाया की यहाँ कैमरे की नहीं टेप रिकॉर्डर की ज़रूरत थी. शुरुआत में उस्ताद हलकी फुल्की धुनों वाले फिल्मी गीत सुनाते रहे. फिर एयर वाइस मार्शल विश्वमोहन जी ने उन्हें जोश दिलाया. फौजी अफसरों का काम ही होता है जोश दिलाना. उस्ताद को भी जोश आ गया और उन्होंने राग मल्हार छेड़ दिया. नतीजे में आसमान से ओस की बूँदें तेज़ी से गिरने लगीं. फिर उस्ताद ने राग भैरवी छेड़ा और बगल में मुर्गा बांग देने लगा. ये राज़ बाद में खुला कि वह दरअसल आज के डिनर में शामिल था. फिर उस्ताद कभी हलके फुल्के तो कभी पक्के राग छेड़ते रहे और लोग मंत्रमुग्ध होकर सुनते रहे. एक सज्जन तो ऐसे खोये कि अपना सूप मुंह की बजाये नाक से पी गए.

अगले दिन चौथे तकनीकी सत्र की शुरुआत हुई. चेयरमैन बने श्री उन्नीकृष्णन जी और टोपिक लिया गया, विज्ञान कथा द्वारा विज्ञान संचार. अब मैंने तो इसी सत्र के लिए अपना पेपर भेजा था, पता नहीं कैसे पांचवें सत्र में पहुँच गया. खैर अच्छा ही हुआ. क्योंकि इस सत्र में विश्वमोहन जी ने वाचकों की काफ़ी खिंचाई की. डा. आफरीना रिज़वी ने टाइम मशीन और फ्रेंकेस्टाइन की तुलना की और इस नतीजे पर पहुंचीं कि चूंकि टाइम मशीन में साइंटिफिक शब्दों का ज्यादा इस्तेमाल हुआ है इसलिए वह विज्ञान को ज्यादा संचारित करती है. उनका यह निष्कर्ष किसी काम न आया क्योंकि विश्वमोहन जी ने टाइम मशीन को सिरे से विज्ञान कथा मानने से इनकार कर दिया. विश्वमोहन जी बहुत सी विज्ञान कथाओं को खारिज कर चुके हैं. और इस बात का पूरा चांस है कि विज्ञान कथा लेखकों की इंटरनेशनल बिरादरी उन्हें खारिज कर दे.

मोहन जी कोई तगड़ा सोर्स लगाकर एक बार फिर बोलने खड़े हो गए. गनीमत हुई कि कल की तरह आज उन्हें मुंह दबाकर नहीं उतारना पड़ा. मीनू खरे ने रेडियो पर विज्ञान कथाओं के प्रसारण की कहानी बताई. अंदाज़ वही था यानि 'ये आल इंडिया रेडियो है'. इस कहानी में डा. अरविन्द दुबे, जाकिर अली रजनीश के साथ जब मेरा ज़िक्र आया तो मैं खुशी से फूला न समाया. फिर हरीश यादव आये. उन्होंने खास बात ये बताई कि दुनिया की पहली विज्ञान कथा पत्रिका निकालने वाला बंदा दरअसल रेडियो का था. जब रेडियो पर पहला विज्ञान कथा ड्रामा प्रसारित हुआ तो एलिएंस के खौफ से अमेरिकन्स अपने बेड के नीचे दुबक गए. अमित कुमार ओम बोलने आए और बचपन की यादें ताज़ा कर दीं, जब हम कोर्स की किताबों के बीच कॉमिक्स दुबकाकर पढ़ा करते थे. आज जब उन्होंने बताया कि कॉमिक्स और कार्टून विज्ञान संचार में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं तो हमें अपना कॉमिक्स पढ़ना सार्थक नज़र आने लगा. लेकिन वो ये बताना भूल गए कि भारत की पहली देशी विज्ञान कथा कॉमिक्स फौलादीसिंह सीरीज़ थी.

अंत में उन्नीकृष्णन जी ने बताया कि विज्ञान कथा को कथा की तरह पढ़कर आनंद लेना चाहिए न कि उसका पोस्टमार्टम किया जाए.

4 comments:

seema gupta said...

आसमान से शबनम रुपी मोती गिर रहे थे और सामने से आ रही थीं शहनाई की मधुर लहरियां. लग रहा था, स्वर्ग धरती पर आ गिरा है.
"आपके इन शब्दों ने सच मे ही जैसे समा बंद दिया हो... सारा नज़ारे ने जैसे यथार्थ का आकर ले लिया हो... विज्ञान कथा की परिचर्चा रोचक रही "

Regards

admin said...

बहुत खूब। संस्‍मरण पढ कर शहनाई की वह शाम आंखों के आगे जीवंत हो उठी।

Meenu Khare said...

अरे जीशान तुम एक घटना लिखने से रह गए! इस सत्र में, अपना पेपर प्रेसेंट करने के बाद न जाने कैसे मेरे दोनों पैरों की चप्पलें टूट गयीं...!!! आयोजको से नयी चप्पल की फरमाइश करने की हिम्मत मुझमे नही थी... डर के मारे हनुमान-चालीसा पढने लगी की कही से मेरे नाप की चप्पल का इंतजाम हो जाए वरना भरी सभा में नंगे पैर टहलना पड़ेगा. बजरंगबली ने मेरी प्रार्थना सुन कर बुशरा अलवर को मेरे पास भेजा जिन्हें शायद पहले से पता था की कांफ्रेंस में मेरी चप्पल टूटेगी इसीसे वो मेरे नाप की एक जोड़ी चप्पल घर से लेकर चली थीं. बुशरा की वजह से मुझे वो कहवत याद आ गयी की "A friend in need is a friend indeed."
अब से कहीं जाऊंगी तो झोले में एक जोड़ी चप्पल ज़रूर ले जाऊंगी ...और हनुमान चालीसा पढ़ कर ही घर से निकलूंगी !!!!!!!

zeashan haider zaidi said...

मीनू जी, सच्चा दोस्त वही होता है जो अपनी मदद की किसी को ख़बर भी न होने दे. इसीलिए हमें भी इस किस्से के बारे में कुछ पता नहीं चल पाया. सो ब्लॉग पर आने का सवाल ही नहीं था.