Sunday, October 11, 2009

प्लैटिनम की खोज - एपिसोड : 40

‘‘पागल न बनो। पिस्तौलों से हम ज्यादा से ज्यादा दो फायर कर सकते हैं। और फिर ये जंगली तो हमें सम्मान दे रहे हैं।’’
‘‘पता नहीं इनकी भाषा में ये सम्मान है या तिरस्कार। हम लोग इनके हाव भाव के बारे में भी अंजान हैं।’’ रामसिंह अभी भी शंकित था।

जंगलियों के कमाण्डर ने अपने साथियों को फटकारा, ‘‘तुम लोग खड़े देख क्या रहे हो। जल्दी से देवता के लिए भोजन का प्रबंध करो। बहुत दिनों बाद उन्होंने हमें दर्शन दिये हैं।’’
‘‘और देवता पुत्रों की क्या सेवा करें?’’ एक ने पूछा।

‘‘इन्हें बस्ती के सरदार के पास ले चलते हैं। वे अवश्य इन्हें देखकर प्रसन्न होंगे। और कृतार्थ होकर इनका स्वागत करेंगे।’’ उसने कहा फिर ‘देवता पुत्रों’ को संबोधित करते हुए बोला, ‘‘कृपया आप लोग हमारे साथ बस्ती चलना स्वीकार करें ताकि हमारी बस्ती की भूमि पवित्र हो सके।’’
‘‘ये लोग कुछ कह रहे हैं हमसे।’’ रामसिंह बोला क्योंकि उन्हें जंगलियों की भाषा समझ में नहीं आयी थी।

‘‘मेरा विचार है कि ये लोग हमें कहीं चलने के लिए कह रहे हैं।’’ प्रोफेसर ने उन लोगों के हाव भाव से अनुमान लगाया।
‘‘लेकिन कहां? पता नहीं ये हमें कहां ले जाना चाहते हैं।’’
जब जंगलियों ने उन्हें आगे कदम बढ़ाते न देखा तो उनमें से एक आगे बढ़ा और प्रोफेसर की बांह पकड़कर आगे की ओर खींचने लगा। लाचार होकर प्रोफेसर ने आगे कदम बढ़ा दिये। साथ में रामसिंह भी आगे की ओर बढ़ा। अब उनका काफिला एक पगडंडी पर चलने लगा था। दोनों दोस्तों के मन में विभिन्न प्रकार की शंकाएँ और विचार उत्पन्न हो रहे थे जो उनकी चाल को कभी धीमी कभी तेज कर देते थे।

वे जंगली उन लोगों को काफी सम्मान दे रहे थे। कमाण्डर को छोड़कर सारे जंगली रामसिंह और प्रोफेसर के पीछे चल रहे थे। एकाध ने डरते डरते प्रोफेसर के सूटकेस पर हाथ लगाया किन्तु तुरन्त इस प्रकार हाथ पीछे खींच लिया मानो सूटकेस से आग निकल रही हो।

पीछे चलते हुए एक जंगली ने दूसरे को संबोधित किया, ‘‘मित्र, ये देवता पुत्र अपने शरीर पर किस पेड़ की छाल लपेटे हैं?’’
‘‘होगा स्वर्ग का कोई पेड़। भला हम लोग इनके बारे में क्या जानें।’’ दूसरे ने जवाब दिया।
‘‘हमारे देवता की लीला अपरंपार है। पिछली बार जब उन्होंने दर्शन दिया था तो हमारे खेतों में उगी सारी गोभियों पर उनकी कृपा दृष्टि हो गयी थी और वे सब उनके पेट में भोजन बनकर कृतार्थ हो गयी थीं।’’

‘‘देवता की कृपा है कि हमारे खेत खूब गोभियां उगाते हैं। जंगली भैंसे की आतों के साथ तो ये गोभियां स्वर्ग के भोजन का मजा देती हैं।’’ एक अन्य जंगली बोला।
‘‘आज देवता के आने की ख़ुशी में तो अवश्य उत्सव होगा।’’

‘‘सरदार अवश्य हमें इसकी आज्ञा दे देंगे। फिर मैं तो वह विशेष सुरा पीकर नाचूंगा जो सुअर की खोपड़ी को गधे के मूत्र में उबालकर बनायी जाती है।’’
‘‘वाह। क्या स्वादिष्ट सुरा होती है। हमें तो सुनकर ही मस्ती आ गयी।’’ एक ने झूमकर कहा।

2 comments:

Arvind Mishra said...

कहानी का एक गंभीर मोड़ आने वाला है शायद !

seema gupta said...

आगे का इन्तजार....

regards