जब वे लोग वहां पर पहुंचे तो उन्हें यह देखकर निराशा हुई कि वह रेस्ट हाउस की बजाय एक छोटी सी झोंपड़ी थी।
‘‘यह क्या हुआ प्रोफेसर? ख्वाब देखा था रेस्ट हाउस का और मिली झोंपड़ी।’’ रामसिंह सामने की ओर घूरते हुए बोला।
‘‘और वह भी किसी दूसरे की।’’ शमशेर सिंह भी बोला।
‘‘यह तुम कैसे कह सकते हो?’’ रामसिंह ने शमशेर सिंह की ओर घूरकर पूछा।
‘‘स्पष्ट है कि जब इसे हमने नहीं बनाया है तो यह किसी और की होगी।’’
‘‘किन्तु यह है किसकी?’’
‘‘और इससे महत्वपूर्ण सवाल ये है कि इसके अंदर चला जाये या नहीं?’’ प्रोफेसर ने पहली बार मुंह खोला।
‘‘इसमें सोचने की क्या बात है। मुझे तो बहुत जोरों की भूख लगी है। हो सकता है कि इसके अंदर जाने पर कुछ खाने को मिल जाये।’’ शमशेर सिंह बोला।
‘‘और अगर अन्दर जाने पर इसके मालिक ने हमें देखते ही दौड़ा लिया तो?’’ रामसिंह ने आशंका प्रकट की।
‘‘तो दौड़ लेंगे। क्या अन्तर पड़ता है।’’ फिर उनमें यही निश्चय हुआ कि अन्दर जाकर देखा जाये। वे लोग थोड़ी हिचकिचाहट के साथ आगे बढ़ने लगे और फिर दरवाजे पर पहुंच गये, जो बन्द था।
प्रोफेसर ने दरवाजे को ध्क्का दिया और वह खुल गया। अन्दर सन्नाटा छाया था।
‘‘यहां तो कोई नहीं दिखाई दे रहा है।’’ रामसिंह ने चारों ओर देखा।
‘‘शायद हमें देखकर डर कर कहीं छुप गया है।’’
‘‘मेरा विचार है कि यहां कोई नहीं रहता।’’ प्रोफेसर बोला।
‘‘अनोखा विचार है। क्या इस वीराने में यह झोंपड़ी हम लोगों के लिए बनायी गयी है?’’ रामसिंह ने प्रोफेसर की ओर देखा।
‘‘मेरा यही ख्याल है कि उन लोगों ने जिस रेस्ट हाउस के लिए बताया था वह यही झोंपड़ी है। इसमें हम तीनों आराम से टिक सकते हैं। और अगर तलाश करें तो खाने पीने का भी सामान मिल सकता है।’’
‘‘ठीक है।’’ फिर वे लोग तलाशी में जुट गये। जल्दी ही उन्हें अपने मतलब का माल मिल गया। एक कोने में विभिन्न कनस्तरों में आटा, दाल, चावल इत्यादि रखे थे। थोड़े से बिस्कुट भी रखे थे।
सबसे पहले वे लोग बिस्कुटों पर टूट पड़े। क्योंकि सभी को भूख लग रही थी। थोड़ी देर में वे सारे बिस्कुट चट कर चुके थे।
‘‘थोड़ी सी भूख तो मिट गयी। और बाकी भूख मिटाने के लिए भोजन बनाना पड़ेगा।’’ शमशेर सिंह ने कनस्तरों को देखते हुए कहा।
‘‘बाद में बना लेंगे। पहले हम लोग थोड़ा आराम कर लें।’’ प्रोफेसर ने कहा। फिर वे लोग जूता उतारकर वहीं आराम करने के लिए लेट गये।
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1 comment:
रोचक आगे......
regards
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