Sunday, December 14, 2008

ताबूत - एपिसोड 28

उधर ताबूतों में मौजूद चारों मनुष्यों ने एक दूसरे की तरफ़ देखा. फ़िर उनमें से एक ने अपना मुंह खोला, "आह! आज पता नहीं कितने बरसों के बाद हम जागे हैं." पाटदार आवाज़ में वह व्यक्ति कोई अनजान भाषा बोल रहा था.
"हाँ सियाकरण. और इसके लिए हमें इन मनुष्यों का कृतज्ञ होना चाहिए." दूसरे व्यक्ति ने तीनों दोस्तों की तरफ़ देखा, जो अपनी जगह पर खड़े वाइब्रेटर पर लगे मोबाइल की तरह काँप रहे थे.
"तुम ठीक कहते हो मारभट, चलो हम उनके पास चलकर उन्हें धन्यवाद देते हैं." सियाकरण ने कहा और चारों अपने अपने ताबूतों से निकलकर बाहर आ गए. चारों का कद किसी भी प्रकार सात फिट से कम नहीं था.
"प...प्रोफ़ेसर, वो लोग हमारी तरफ़ आ रहे हैं." रामसिंह ने शमशेर सिंह को प्रोफ़ेसर समझकर उसका बाजू थाम लिया. जबकि शमशेर सिंह ऑंखें बंद करके जल्दी जल्दी आरती को हनुमान चालीसा की तरह पढने लगा. हनुमान चालीसा तो इस समय लाख कोशिश करने के बाद भी याद नहीं आ रही थी.
चारों उनके सामने पहुंचकर रुक गए.
"हम तुम्हारा शुक्रिया अदा करते हैं कि तुमने बरसों बाद हमें इन ताबूतों से बाहर निकाला." वह व्यक्ति बोला जिसे दूसरों ने सियाकरण कह कर संबोधित किया था.
"प...प्रोफ़ेसर, यह क्या कह रहा है?" रामसिंह ने पूछा.
"शायद यह हमें खाने की बात कर रहा है." प्रोफ़ेसर की बात सुनकर दोनों की हालत और ख़राब हो गई.
उसी समय तीन ताबूतवाले आगे बढे और तीनों को गले से लगा लिया. जबकि चौथा व्यक्ति बारी बारी से तीनों के सर सहलाने लगा.
"य..ये लोग क्या कर रहे हैं?" बड़ी मुश्किल से शमशेर सिंह के मुंह से आवाज़ निकली.
"ये लोग हमें पकाने से पहले हमारी हड्डियों का कचूमर बनाना चाहते हैं." प्रोफ़ेसर कराहकर बोला. ताबूतवाले ने उसे कुछ ज़्यादा ज़ोर से भींच लिया था.
फ़िर वे लोग उनके हाथ चूमने लगे.
"मेरा ख्याल है ये लोग हमसे दोस्ती करना चाहते हैं." प्रोफ़ेसर ने कहा.
"भ..भूतों की न दोस्ती अच्छी होती है न दुश्मनी. प्रोफ़ेसर जल्दी से यहाँ से भाग चलो." रामसिंह ने प्रोफ़ेसर का हाथ पकड़कर खींचा.
लेकिन चारों ने उन्हें ऐसा जकड़ रखा था कि भागने का सवाल ही नहीं पैदा होता था.

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