Tuesday, November 25, 2008

साइंस फिक्शन - भूत, वर्तमान, भविष्य : संस्मरण - 6



चाय के समय में हरीश गोयल जी मेरे पीछे पड़ गए. उन्हें दरअसल मेरी वह किताब चाहिए थी जिसका अभी अभी विमोचन हुआ था. अब राजन मियां कहने लगे कि सबको फ्री में किताबें बाँट दी जायें. बड़ी मुश्किल से उन्हें समझाया कि भाई, प्रकाशक कि लुटिया नही डुबोनी है. फ़िर गोयल जी को समझाना शुरू किया. गोयल जी ख़ुद तो एक किताब लाते हैं विमोचन के लिए, और फिर छुपा लेते हैं. और दूसरों कि किताब उडाने कि फिराक में रहते हैं. आखिरकार उन्हें एक पुरानी किताब देकर बहलाना पड़ा. उसमें भी अमित जी लंगड़ मार गए. कहने लगे कि वो किताब नही, उसकी फोटोकॉपी है.गोयल जी भड़क गए. फिर उन्हें समझाने में शाम की चाय चली गई.
चाय के बाद तीसरा सत्र शुरू हुआ. विज्ञान कथा वर्तमान में किधर जा रही है, इसपर बहस होनी थी. और इस बहस के लिए एक से एक दिग्गज मौजूद थे. डा. विभावरी देशपांडे ने कुर्सी संभाली और अन्वेषा मैती ने जापानी व बंगाली विज्ञान कथा साहित्य की तुलना कर डाली. यानी कहाँ का जोड़ा कहाँ भिडाकर इस निष्कर्ष पर पहुंचीं की दोनों में ही एडवेंचर का इस्तेमाल बहुतायत से हुआ है.रीमा सरवाल ने दूर की कौडी सोची और विज्ञान कथा को उपनिवेशवाद के बाद का साहित्य बताया. दूसरे शब्दों में तीसरी दुनिया के वासियों की तुलना एलीएंस से कर डाली. इस बीच लैपटॉप में भी एलिएंस यानि कंप्यूटर वायरस घुस गए. इसलिए इस सत्र में भी कुछ वक्ताओं को स्लाइड के बिना अपना शो दिखाना पड़ा.
जाकिर अली रजनीश ने विज्ञान कथा लेखकों से गुजारिश कि वे बच्चों के लिए रोचक साहित्य लिखें. 'शुक्र ग्रह पर पीछा जैसी कहानियाँ न ही लिखी जाएँ तो बेहतर है. डा. रत्नाकर भेलकर ने आर्थर क्लार्क की कहानी का पोस्टमार्टम किया. उसी समय लैपटॉप से वायरस गाएब हो गए. और सही वक्त पर गाएब हुए. क्योंकि अगले पेपर विज्ञान कथा फिल्मों पर थे. वेन्कादेशन और श्रीविद्या ने फिल्मों के स्पेशल इफेक्ट के बारे में बताया जिसका माइक ने खतरनाक आवाजें निकालकर बखूबी साथ दिया. वलिगंथम और संपत कुमार ने इंडियन और वेस्टर्न फिल्मों की तुलना की. और महत्वपूर्ण बात भूल गए, कि हर इंडियन फ़िल्म में रोमांटिक गाना धूम धडाके के साथ ज़रूर होता है, जो कि वेस्टर्न में नदारद होता है.
अंत में लोगों को हर मिनट टाइम की याद दिलाने वाली चेयरपर्सन जी ने माइक संभाला और अपना टाइम देखना भूल गईं. साथ ही ये भी भूल गईं कि हॉल में देशपांडे जी के अलावा भी लोग है. उन्होंने अपने पतिदेव की कहानियों का गुणगान करना शुरू किया और देशपांडे जी मंत्रमुग्ध होकर उसे सुनने लगे. पता नहीं बाद में उन्होंने पत्नी महोदया को शौपिंग कराई या नहीं. इस चक्कर में डा. अरविन्द दुबे जी एक बार फिर रह गए. विज्ञान कथाओं में उन्हें स्पेस की तलाश करनी थी. यहाँ तो टाइम में ही स्पेस नहीं बचा.

4 comments:

Arvind Mishra said...

वाह भाई जीशान ,व्यवस्थाओं के चक्कर में मैं परिचर्चा के अकादमीय पक्षों से नही जुड़ पाया -मगर अब आपके इस जीवंत वर्णन से पूरी भरपाई हो रही है ! शुक्रिया !

अभिषेक मिश्र said...

Puri Science comunity mein hi SPACE ki problem chai hui hai, to bhala Vigyan Katha gosthi hi kaise piche rahti.

seema gupta said...

अब राजन मियां कहने लगे कि सबको फ्री में किताबें बाँट दी जायें. बड़ी मुश्किल से उन्हें समझाया कि भाई, प्रकाशक कि लुटिया नही डुबोनी है.

हा हा हा हा, बहुत सही कहा अब मेहनत की है .... अच्छा लग रहा है पढ़ कर"
Regards

admin said...

रोचक वर्णन।