Wednesday, October 7, 2009

प्लैटिनम की खोज - एपिसोड : 37

शमशेर सिंह ने एक ठण्डी सास लेने का प्रयत्न किया किन्तु गर्मी का मौसम होने के कारण यह संभव नहीं हो सका। फिर वह सर पकड़ कर बैठ गया क्योंकि एक बड़े तालाब ने सामने आकर आगे बढ़ने का रास्ता बन्द कर दिया था।
इस समय शमशेर सिंह का मन यही कर रहा था कि उस तालाब से चुल्लू भर पानी लेकर उसमें डूबने की कोशिश शुरू कर दे। और यह कोशिश किसी शर्म के कारण नहीं होती बल्कि झल्लाहट के कारण होती।

‘‘हाय, ये कैसा एडवेंचर है। फिल्मों में तो केवल तीन घण्टे में हीरो एडवेंचर करके अपने घर के मुलायम गद्दे पर आराम करने लगता है। यहा तो पाच घण्टे से ऊपर हो गये लेकिन कुछ भी नहीं हुआ। अब मैं वापस जाकर उन प्रोडयूसरों पर दावा ठोकूंगा जो ऐसी फिल्में बनाते हैं।’’
वह झटके से उठा किन्तु उसी समय ऊपर से एक जाल उसके सर पर पड़ा और वह उसमें फंसता चला गया। यह जाल पेड़ की लताओं से बनाया गया था।

कुछ पल तो शमशेर सिंह की समझ में ही नहीं आया कि उसके साथ क्या बीत गयी। और जब उसे कुछ होश आया तो वह जाल से निकलने का प्रयत्न करने लगा। लेकिन जितना वह कोशिश कर रहा था उतना ही जाल उसपर तंग होता जा रहा था।
वह जाल से बाहर निकलने की कोशिश में आसपास के वातावरण से बेखबर हो गया। उसे खबर तब हुई जब उसके कानों ने कुछ आवाज़ें सुनीं। उसने सर उठाकर देखा और अगले ही पल मानो उसकी आत्मा अपने साथ सारा खून निचोड़कर उसका साथ छोड़ चुकी थी। उसका चेहरा इस प्रकार सफेद पड़ गया मानो किसी काली सुंदरी ने गोरा दिखने के लिए अपने चेहरे पर पाउडर का लेप लगा लिया हो।

चारों ओर से कुछ जंगली उसे घेरे हुए खड़े थे और उसे घूरते हुए अपनी भाषा में कुछ कह रहे थे। उन्हीं जंगलियों में से एक के हाथों में उसके जाल की डोर थी।

वे जंगली कूदते फांदते हुए तेज आवाज में बोल रहे थे। शमशेर सिंह ने केवल एक शब्द साफ आवाज में सुना। और यह शब्द थे, ‘'शिकार -- शिकार !’’